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________________ अध्याय २ जिस में देखा जाता है वह दर्शन है। इस प्रकार जीवादि के विषय में अविपरीत अर्थात् अर्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त ऐसी दृष्टि सम्यग्दर्शन है। अथवा "प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनमिति' अर्थात् जिनेश्वर द्वारा अभिहित अविपरीत अर्थात् यथार्थ द्रव्यों और भावों में रुचि होना वह प्रशस्त दर्शन है। प्रशस्त इसलिए है कि मोक्ष का हेतु है। व्युत्पत्ति पक्ष के आश्रित अर्थ को लेकर कहते हैं-"संगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् जिनप्रवचन के अनुसार संगत विचार करना वह सम्यग्दर्शन है।' इस दर्शनवाची श्रद्धा पर शंका करते हुए पूज्यपाद ने कहादर्शन शब्द "शि" धातु से बना है, जिस का अर्थ आलोक है, अतः इस से श्रद्धान रूप अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता। इसका समाधान करते हुए कहा-धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, अतः दृशि धातु का श्रद्धान रूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है। पुनः शंकाकार शंका करते हैं कि यहाँ "दृशि" धातु के प्रसिद्ध अर्थ को क्यों छोड़ा गया ? समाधान-मोक्ष मार्ग का प्रकरण होने से । तत्त्वार्थों का श्रद्धानरूप जो आत्मा का परिणाम होता है वह तो मोक्ष का साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्यों के ही पाया जाता है, किंतु आलोक-चक्षु आदि के निमित्त से होता है जो साधारण रूप से सब संसारी जीवों के पाया जाता है। अतः उसे मोक्ष-मार्ग मानना युक्त नहीं।' सिद्धसेन व अकलंक भी यही कहते हैं। ... इस प्रकार जिनोक्त तत्त्वों पर ज्ञानपरक होने वाली श्रद्धा को - सम्यग्दर्शन कहा । यहाँ एक बात पर ध्यान जाता है कि जब ज्ञानपरक श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा तो सम्यग्दर्शन के पश्चात आने वाले सम्यग्ज्ञान को पूर्व में रखना चाहिये । इस का उल्लेख करते हुए पूज्यपाद ने कहा-सूत्र में पहले ज्ञान का ग्रहण करना न्यायसंगत होगा क्योंकि १. सिद्ध० वृ०, पृ० ३०-३१ ॥ - २. स० सि०, पृ० ७ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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