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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप का संग्रह करने के लिए दर्शन से पहले सम्यक् विशेषण दिया है।' उमास्वाति ने अपने भाष्य में सम्यग शब्द का अर्थ करते हुए कहा" सम्यगिति प्रशंसाएँ निपातः, समंचतेर्वा भावः" अर्थात् निपात से सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द है तथा सम् पूर्वक अंच् धातु यह भाव से है। राजवार्तिककार अकलंकदेव के अनुसार प्रशसार्थक (निपात) के साथ यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, कुल, आयु, विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रधान कारण होता है। किसी ने शंका की कि "सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः” इस प्रमाण के अनुसार सम्यक् शब्द का प्रयोग "इष्टार्थ और तत्त्व" अर्थ में होता है अतः इसका प्रशंसा अर्थ उचित नहीं है। इस शंका का समाधान यह है कि निपात शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। अतः प्रशंसा अर्थ मानने में कोई विरोध नहीं है। अथवा सम्यक् का अर्थ तत्त्व भी किया जा सकता है जिसका अर्थ होगा तत्त्व-दर्शन, अथवा यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है, इसका अर्थ है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानने वाला। ___“सम्यक्” शब्द की व्युत्पत्ति करने के पश्चात् अब "दर्शन" शब्द की व्युत्पत्ति पूज्यपाद के अनुसार-"पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्' अर्थात् जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय या देखना मात्र ।'
सिद्धसेन इस की व्युत्पत्ति करते हुए कहते हैं कि-" दर्शनमिति दृशेख्यभिचारिणी सर्वेन्द्रियानिन्द्रियार्थ प्राप्तिः" अव्यभिचारी इन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थात् मन के सन्निकर्ष से अर्थप्राप्ति होना दर्शन है। दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति "दृशि" धातु के ल्युट् प्रत्यय करके भाव में इक् प्रत्यय होने पर जिस के द्वारा देखा जाता है, जिससे देखा जाता है तथा १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४ ॥ २. सिद्ध० वृ० पृ० २६-३१ ॥ ३. राजवातिक, पृ० १९ ।।
सम्यगित्ययं निपातः प्रशंसार्थो वेदितव्यः सर्वेषां प्रशस्तरूपगतिजातिकुलायुर्विज्ञानादीनाम् आभ्युदयिकानांमोक्षस्य च प्रधानकारणत्वात्। ४. स० सि०, पृ० ४॥