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________________ अध्याय २ सिद्धि" मानी जाती है। उसके रचयिता पूज्यपाद का समय विद्वानों ने विक्रम की पाँचवी-छठी शताब्दी निर्धारित किया है, इस से इतना हम कह सकते हैं कि वाचक उमास्वाति का समय पाँचवी शताब्दी से पूर्व तो है ही।' तत्त्वार्थसूत्र पर अनेकों वृत्तियाँ व टीकाएँ लिखी गई हैं कि जितनी अन्य कोई ग्रन्थ की लिखी गई हो । यहाँ मैंने सिद्धसेन गणिकी वृत्ति तथा टीकाओं में सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपाद, राजवार्तिकअकलंकदेव का, एवं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-विद्यानंदी का उल्लेख किया है। दिगम्बर विद्वान उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्र मात्र एक ग्रंथ ही स्वीकार करते हैं वे भाष्य को स्वोपज्ञ नहीं मानते जबकि श्वेताम्बर प्रशमरति, यशोधरचरित्र, श्रावकप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप समास, पूजाप्रकरण आदि ग्रंथ भी इनके ही स्वीकार करते हैं । इस सूत्र में सम्यक्त्व विचार-विकास विशदरूप से, विस्तार से प्राप्त होता है । इस सूत्र का प्रारंभ ही सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्व से हुआ है। __ तत्त्वार्थसूत्र के प्रथमसूत्र में ही कहा गया है कि " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों ही मिलकर मोक्षमार्ग है । सम्यग्दर्शन दो शब्दों के मेल से बनता है - सम्यक् दर्शन । सम्यक् शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि. सम्यक् शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रूढ भी है और व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरण-सिद्ध भी है । व्याकरण से सिद्ध करने पर सम् पूर्वक अंच ' धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर सम्यक् शब्द निष्पन्न होता है । संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति “समंचति इति सम्यक्" इस प्रकार होती है । प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है । इसे दर्शन ज्ञान और चारित्र इन प्रत्येक के साथ जोड़ने पर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र बनता है । नाममात्र से पदार्थों के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धान १. वही, पृ० ९॥ २. तत्त्वार्थसूत्र, अ० १, सूत्र १ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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