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________________ ८६. जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप इसे जैन परम्परा के सभी सम्प्रदायों ने समान रूप से अपनाया है । दार्शनिक जगत् में तो इसे ख्याति मिली ही है किन्तु आध्यात्मिक जगत् में भी इसका कुछ कम आदर नहीं हुआ है । इस दृष्टि से वैदिकों में गीता का, ईसाइयों में बाइबिल का और मुसलमानों में कुरान का जो महत्त्व है वही महत्त्व जन परम्परा में तत्त्वार्थ सूत्र का माना जाता है ।' तत्त्वार्थ सूत्र के मूल कर्त्ता वाचक उमास्वाति अथवा उमास्वामि हैं । वाचक उमास्वाति की खुद की रची हुई, अपने कुल तथा गुरु परम्परा को दर्शाने वाली, लेशमात्र भी संदेहरहित तत्त्वार्थसूत्र की प्रशस्ति आज उपलब्ध है | उस में उल्लिखित है कि - " जिन के दीक्षा गुरु ग्यारह अंग के धारक " घोषनंदि" श्रमण थे और प्रगुरु-गुरु के गुरु वाचक मुख्य " शिवश्री” थे, वाचना से अर्थात् विद्याग्रहण की दृष्टि से जिनके गुरु “मूल” नामक वाचकाचार्य और प्रगुरुं महावाचकं मुण्डपाद थे, जो गौत्र से "कौभीषणि" थे और जो "स्वाति" पिता और " वात्सी" माता के पुत्र थे। जिनका जन्म “न्यग्रोधिका" में हुआ था और जो "उच्च नागर" शाखा के थे, उन उमास्वाति वाचक, से ने गुरु परम्परा प्राप्त हुए श्रेष्ठ आर्हत उपदेश को भली प्रकार धारण करके तथा तुच्छ शास्त्रों द्वारा हतबुद्धि दुःखित लोक को देखकर के प्राणियों की अनुकंपा से प्रेरित होकर "तत्त्वार्थाधिगम” नाम का स्पष्ट शास्त्र विहार करते हुए कुसुमपुर नाम के महानगर में रचा है । उक्त प्रशस्ति में सब कुछ स्पष्ट होने पर भी उन का समय भली भांति ज्ञात नहीं हो सका । उस पर अद्यावधि विवाद व शंकाएँ हो रही हैं । स्थविरावल के आधार पर तो इतना कहा जा सकता है कि वे वीरात् ४७९ अर्थात् विक्रम संवत् के प्रारंभ के लगभग किसी समय हुए है । दूसरी उपलब्ध टीकाओं में आज सब से प्राचीन "सर्वार्थ १. प्रस्तावना, सर्वार्थ सिद्धि, पृ० १९-२० । २. त ० ० टी० सुखलाल संघवी, प्रस्तावना पृ० ५-६ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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