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________________ मध्याय २ मोक्ष साधना में जो सम्यग्दर्शन तथा ज्ञानसहित जो चारित्र क्रिया है वह अति कठिन विन्न वाली दुर्लभ होती है।' इस प्रकार ग्रन्थि एवं करण का स्वरूप ग्रन्थकार ने विशेष रूप से बताया है। जैनागमों में आचारांग से विशेषावश्यक तक हमने सम्यक्त्व के स्वरूप, उसके भेदादि पर हमने दृष्टिपात किया । अब हम आगमेतर साहित्य पर नजर डालेगें कि उन में इसका विकास किस प्रकार हुआ ? (ख) आगमेतर साहित्य में सम्यक्त्व(अ) तत्त्वार्थसू त्र व टीकाएँ यह जैन दर्शन का प्रमुख ग्रन्थ है। इस में जैनाचार और जैन तत्त्वज्ञान के सभी पहलुओं पर सूत्र शैली में विचार किया गया है। यह सुनिश्चित है कि जैन आगमश्रुत की मुख्य भाषा प्राकृत रही है तथा इस के आधार से आरातीय आचार्यों ने जो अंगबाह्यश्रुत लिपिबद्ध • किया वह भी प्रायः प्राकृत' भाषा में ही लिखा । श्रुतसाहित्य के अव लोकन से यही ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के समय साधारण . बोलचाल की भाषा भी प्राकृत ही रही होगी। . ... धीरे धीरे ब्राह्मण संस्कृति में साहित्यिक भाषा संस्कृत होने से जैन आचार्यों को इसी भाषा का अवलंबन लेना पड़ा होगा । यही कारण है कि तत्त्वार्थ-सूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना संस्कृत में की गई । जैन परम्परा के उपलब्ध साहित्य में संस्कृत भाषा में रचा गया यह सर्वप्रथम ग्रन्थ है। तत्त्वार्थसूत्र लघुकाय सूत्रग्रन्थ होकर भी इस में प्रमेय का उत्तमता के साथ सकलन हुआ है। इस कारण १. पाएण पुव्वसेवा परिमउयी साधणम्मि गुरुतरिया । होति महाविजाए किरिया पायं सविग्घा य । वही, गा० ११९६ ॥ .. तहकम्मठितिखवणे परिमयुयी मोक्खसाधणे गरुयी। ... ध दसणादिकिरिया दुलभा पायं सविग्धा य । वही, गा० ११९७ ।।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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