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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
वेदक - सम्यक्त्व पुंज के अंतिम अंश का अनुभव उसे वेदक सम्यक्त्व कहते हैं ।
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क्षायिक- जो अनन्तानुबन्धी चतुष्क सहित तीनों दर्शनमोहनीय का क्षय करे उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । '
इस प्रकार पाँचों भेदों के स्वरूप का कथन किया है। इस में ग्रन्थकार ने ग्रन्थि-भेद एवं तीन करण का उल्लेख किया है । वह ग्रन्थि कैसी है ? उस के स्वरूप का भी निर्देश किया है कि
कठोर-निबिड़, शुष्क और अत्यंत प्रचय प्राप्त बांस की गांठ जैसी दुर्भे होती है। ऐसे ही जीव के परिणामजनित कर्म है । इस ग्रन्थि - भेद के पश्चात् ही मोक्ष के हेतुभूत सम्यक्त्वं का लाभ होता है। यह ग्रन्थि-भेद मनोविघात एवं परिश्रमादि से भी अतिदुर्लभ होता हैं । " क्योंकि वहाँ ग्रन्थि-भेद करने में प्रवृत्त जीव का महाघोर संग्राम से विजय प्राप्त करके निकले हुए सुभट के समान परिश्रम होता है अथवा विद्यासिद्धि के समय विद्या अनेक विघ्नों से सिद्ध होती हैं उसी प्रकार ग्रन्थि भेद भी बहुत मुसीबत से होता है ।
वह ग्रन्थि-भेद अति दुर्भेद्य बताया है तथा तीनों करण कैसे होते हैं ? उनके लिए कहा है
जिस प्रकार महाविद्या साधने में पहले की सेवा सरल होती है। और उस महाविद्या को साधते समय जो क्रिया होती है वह बहुत बड़ी और विघ्नकारक होती है उसी प्रकार कर्मस्थिति खपाने में जो यथाप्रवृत्तिकरण की क्रिया सरल होती है और ग्रन्थिभेद के आरंभ से
१. वेययसम्मत्तं पुण सम्बोइयचरमपोग्गला वत्थं ।
खणे दंसणमोहे तिविहम्मि वि खाइयं होइ || वही, गा० ५३३ ॥ २. गंठी ति सुदुब्भेतो कखडघणरूढ गूढगण्ठि व्व ।
जीवस्स कम्मजणितो घणरागद्दोसपरिणामो | वही गा० १९९३ ॥
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३. सो तत्थ परिस्सम्मति घोरमहासमरणिग्गताति वव ।
विज्ञाय सिद्धिकाले जह बहुविग्घा तथा सोवि ॥ वही, गा० ११९४ ॥