________________
अध्याय २ .
हैं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण । यह एक ऐसा ग्रन्थ है जिस में जैनागमों में वर्णित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है।
यहाँ सम्यक्त्व के पाँच भेदों का कथन किया गया है-औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक ।'
अब तक सम्यक्त्व के तीन भेद दिखाई देते थे। यहाँ एक साथ पाँच भेदों का कथन किया गया। अब इन पाँचों भेदों का स्वरूप निर्देश करते हैं
उपशम-उपशम श्रेणि प्राप्त को उपशमसम्यक्त्व होता है अथवा जिसने तीन पुज नहीं करे हों और मिथ्यात्व का क्षय भी नहीं किया हो उसे उपशम सम्यक्त्व होता है । पुनः कहते हैं-उदय में आये हुए मिथ्यात्व का क्षय हुआ हो और जो अनुदित मिथ्यात्व शेष है, तब अन्तर्मुहूर्त मात्र उपशम सम्यक्त्व जीव प्राप्त करता है। ..
सास्वादन- इस अंतरकरण में उपशम सम्यक्त्व के काल में से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवली प्रमाण काल शेष रहे तब : किसी जीव को अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से उपशम सम्यक्त्व से
गिरते और मिथ्यात्व की प्राप्ति से पूर्व इन दोनों के अंतराल में . शब्दार्थ के समान सास्वादन सम्यक्त्व होता है। . ... क्षयोपशम-उदय में आए हुए मिथ्यात्व का क्षय किया हो और 'अनुदित सत्ता में हो उस का उपशमन किया हो ऐसे मिश्रभाव वाले को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । १. उपसमियं सासाणं खयसमज वेयय खइयं । विशे० भा० गा० ५२८ ।। २. उवसामगसेढिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मत्तं ।। जो वा अकय तिपुंजो अखविय मिच्छो लहर सम्मं । वही, गा० ५२९॥ खीणम्मि उइण्णम्मि य अणुदिजते य सेसमिच्छत्ते ।
अंतामुहुत्तमेत्तं उवसमसम्म लहइ जीवो । वही, गा० ५३० ॥ ३. उबसमसम्मत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स। . सासायणसम्मत्तं तयंतरालम्मि छावलियं ।। वि०आ० भा० गा० -५३१॥ ४. मिच्छत्तं जमुइण्णं तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । मीसीभावपरिणयं वेइजतं खओवसमं । वही, गा० ५३२ ॥