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________________ ८२ . जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप कार्मग्रन्थियों का मत यह है अन्तरकरण में औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर पश्चात् मिथ्यात्व के तीन पुंज को करता ही है। और वहाँ से च्युत होकर वह उन उन पुजों के उदय से क्षयोपशमिक, मिश्र अथवा मिथ्यात्वी होता ही है।' .. जीव किस गतिविधि से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है उस का कथन करके अब ग्रन्थकार बता रहे हैं कि नयसार ने अटवी में पथ-भ्रष्ट हुए मुनि को मार्ग बता कर सम्यक्त्व प्राप्त किया। वह लकड़ी काटने हेतु वन में गया था तब सार्थ से बिछुडे हुए साधुओं को भिक्षा दी। इस प्रकार अनुकंपा व भक्ति से गुरु के कहने पर सम्यक्त्व लिया। इस प्रकार आवश्यकनियुक्ति · में सम्यक्त्व की नियुक्ति द्वारां उनके पर्यायवाची शब्दों का एवं किस प्रकार ग्रन्थिभेद होता है व जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है उस का उल्लेख किया गया। एवं दृष्टांतों के माध्यम से समझाया भी गया। इस प्रकार सम्यक्त्व की विकास सामग्री यहाँ उपलब्ध हुई। . ... विशेषावश्यक भाष्य नियुक्तियों के गूढार्थ को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के लिए पूर्व के आचार्यों ने उन पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखी। नियुक्तियों के आधार पर अथवा स्वतंत्र रूप से भाष्यों की पद्यात्मक रचना हुई जो कि प्राकृत भाषा में हैं। आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये, पर दो भाष्य अति संक्षिप्त होने से विशेषावश्यक भाष्य में ही सम्मिलित कर लिये गये । यह पूरे आवश्यक सूत्र पर न होकर उसके प्रथम अध्ययन सामायिक पर है। इस में ३६०३ गाथाएँ हैं । इस के कर्ता १. कार्मग्रन्थिकानां तु अन्तरकरणे औपशमिकसम्यक्त्वं लब्ध्वा तेन मिथ्यात्वस्य पुंजत्रयं करोत्येव, ततश्च्युतोऽसौ तत्तत्पुंजोयात् क्षायो पशमसम्यक्त्वी मिश्रो मिथ्यात्वी वा स्यात् । आव नि०दीपृ० ३९॥ २. आव० नि गा० १४६ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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