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अध्याय-२
रूपी महाज्वर किसी को स्वाभाविक रीति से, किसी को गुरुवचन रूप औषध से और किसी का उतरता नहीं।
कोद्रव : कोदरा की मादकता किसी की स्वाभाविक रीति से, किसी की छाण आदि के प्रयोग से और किसी के स्वभाव का नाश ही नहीं होता, उसी प्रकार जीव कोदरा के समान मिथ्यात्व के अपूर्वकरण से तीन पुंज करता है, किंतु सम्यग्दर्शन तो अनिवृत्तिकरण से ही प्राप्त होता है। प्रयोग करने पर तीन प्रकार के कोदरा होते हैं, यथा-शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध ।
वन : वस्त्र की मलिनता होने पर कोई तो बिलकुल साफ नहीं होता, कोई अर्द्धस्वच्छ और कोई सर्वथा स्वच्छ हो जाता है। उसी प्रकार जीव भी अपूर्वकरण परिणाम से दर्शनमोहनीय कर्म से शुद्ध, अशुद्ध और अर्द्धशुद्ध होता है।'
इस प्रकार सर्वप्रथम आत्मा मिथ्यात्व दलिकों के वेदन का अभाव होने पर उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है जो कि अन्तर्मुहर्त . प्रमाण रहता है। पश्चात् औपशमिक सम्यक्त्व से च्यवन होकर वह
जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट षडावलि में अनन्तानुबन्धी का उदय · शेष रहता है तब सास्वादन सम्यक्त्व प्राप्त करता है। पश्चात् पुनः वह मिथ्यात्व का उदय होने से मिथ्यात्वी हो जाता है। पुनः
अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता . है। यह सिद्धांत का मत है।
१. आव०नि० दी० गा० १०७, पृ० ३८-३९ ॥ २. मिथ्यात्वदलिकवेदनाऽभावादौपशमिकं सम्यक्त्वमाप्नोति, पुंजत्रयं स्वसौ न करोत्येव । ततश्रौपश मिकसम्यक्त्वाच्च्यवन् , जघन्यं समयेनोत्कृष्ट षडायलिषु शेषास्वनन्तानुबन्ध्युदयः स्यात् , तदा च सास्वादनसम्यक्त्वं लभते, ततो जघन्यतः समयात् उत्कृष्टतः षडावलिकाभ्यः पुनरुव॑मवश्यं मिथ्यात्वोदयादसौ मिथ्यात्वी स्याद् तत: पुनर पूर्वानिवृत्तिकरणाभ्यां क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं लभते । वही पृ०३९।।