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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप पल्य : जैसे पल्य में थोड़ा थोड़ा धान डालें और उस में से अधिक निकालें तो कुछ समय पश्चात् धान समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार आत्मारूपी पल्य में कर्मरूपी धान्य का बंधन कम करें और कर्मों को खपावे अधिक, तब इस प्रकार जीव ग्रन्थि स्थान पाता है और यथाप्रवृत्तिकरण करता है । पश्चात् अपूर्वकरण का उल्लंघन करके निवृत्तिकरण के द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
चींटियाँ : जिस प्रकार चींटियाँ स्वाभाविक गमन करती हुई कभी स्थाणुं पर चढ़ती हैं, वहाँ से कभी गिर जाती है, कभी चढ़कर उतर भी जाती है। इस प्रकार स्वाभाविक गमन के समान यथाप्रवृत्ति करण है, स्थाणु पर चढ़ने के समान अपूर्वकरण एवं उतरने के समान अनिवृत्तिकरण है।
पुरुष : तीन पुरुष अटवी में होकर नगर, की ओर जाते हैं । ७० योजन प्रमाण रास्ते में से ६९ योजन मार्ग पार करने पर दो चोर मिलते हैं। चोर को देखकर एक पीछे मुड़ गया, दूसरे को चोरों ने पकड़ लिया और तीसरे ने चोरों का अतिक्रमण किया व गन्तव्य स्थल पर पहुंच गया। यहाँ यह अटवी संसार है । पुरुषों में एक ग्रन्थिदेश से वापिस लौट गया वह, दूसरा ग्रन्थि देश में रहने वाला तथा तीसरा ग्रन्थिभेद कर चुका वह । कर्म की स्थिति वह दीर्घ पंथ, ग्रन्थि वह भयस्थान है, दो चोररूपी राग-द्वेष हैं । जो भाग गया वह अभिन्न ग्रन्थि पुनः स्थिति बढाने वाला जीव, जो पकड़ा गया वह ग्रन्थि देश से आगे रहा जीव और जो चला गया उसके समान सम्यक्त्व नगर में पहुँचा हुआ जीव । ___मार्ग : जिस प्रकार कोई अटवी में भटकता हुआ स्वयं ही मार्ग प्राप्त कर लेता है, कोई दूसरे के निर्देश से मार्ग पाता है और कोई प्राप्त ही नहीं कर पाता इसी प्रकार जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
ज्वर : ज्वर ग्रस्त कोई मनुष्य बिना औषध के, कोई औषध से और कोई औषध से भी ठीक नहीं होता है उसी प्रकार मिथ्यात्व