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अध्याय २.
करता है । तब भव्यात्मा तीन करण करता है । (यहाँ करण से तात्पर्य विशेष रूप के परिणाम है), अनादि काल से जीव यथाप्रवृत्ति-करण जोकि आद्यकरण है उसे प्राप्त करता है। इसमें जीव ग्रन्थि के समीप पहुँचता है। दूसरा करण है अपूर्वकरण-जो कि आत्मा के अपूर्व-परिणाम अर्थात् जो कि पूर्व में कभी नहीं हुए ऐसे परिणामस्वरूप प्राप्त करता है। इस करण में वह ग्रन्थि का अतिक्रमण कर जाता है। तीसरा करण है अनिवृत्तिकरण-ऐसे परिणाम जिस से जीव निवर्त्तन नहीं करता अर्थात् वापिस नहीं लौटता, यहाँ जीव को सम्यक्त्व लाभ होता है। ये तीनों करण भव्य जीवों के होते हैं, अभव्यों के तो प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण ही होता है।'
तीनों करण करने के पश्चात् जीव सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है । अब ग्रन्थकार आगे उन दृष्टान्तों का भी कथन करते हैं जो कि सम्यक्त्व-प्राप्ति के समान है. पल्य-पर्वत-नदी-पाषाण-कीडियाँ-पुरुष-मार्ग-ताववाला - कोदरा जल और वस्त्र ये नौ दृष्टांत सामायिक प्राप्ति में जानना ।
ये दृष्टांत किस प्रकार घटाये जा सकते हैं उन का कथन करते हैं. १. सत्तण्हं पयडीणं, अभितरओ उ कोडिकोडीणं ।
काऊण सागराण, जइ लहइ चउण्हमण्णयरं ॥१०६। आःनि पृ० ३७॥ • टी-सप्तानां कर्मणां सागराणां अन्त्यकोटाको टेरभ्यन्तरत आत्मानं
कृत्वा यदि लभते कोऽपि चतुर्णामन्यतरत् सामायिकं यदा च सप्तानां कोटाकोटी पल्यासंख्यभागहीना स्यात् तदा घनरागद्वेषपरिणामोऽत्यन्तदुर्भधदारुग्रन्थिवत् कर्मग्रन्थिरुदेति तस्मिश्च भिन्ने एव सम्यक्त्वा. दिलाभ: स्यात् । इह भव्यानां करणत्रयं स्यात, करणं च परिणामविशेषः, तत्र आद्यं करणं अनादिकालाद्यथैव प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तं करणं ग्रन्थि यावत् ।।१।। ततो द्वितीयमप्राप्तपूर्व अपूर्वकरणं ग्रन्थिमतिकामतां ।२।। ततस्तृतीयं न निवर्तनशीलं अनिवृत्ति करणं सम्यक्त्वाप्ति यावत् ॥३॥ अभव्यानां त्वाद्यमेव ॥ वही, पृ. ३७-३८ ।।