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आचार स्वरूप :
दस अट्ठ य ठाणाई, जाइं बालोऽवरज्झई। ___ तत्थ अन्लयरे ठाणे, निग्गंथत्ताउ भस्सइ ||७|| सं.छा.ः दशाष्टौ च स्थानानि, यानि बालोऽपराध्यति।
तत्रान्यतरे स्थाने, निर्ग्रन्थत्वाद् भ्रश्यति ।।७।। भावार्थ : सूत्रकार श्री कहते हैं कि संयम के अठारह स्थान हैं जो अज्ञान आत्मा इन स्थानों की विराधना करता है, इनमें से एक भी स्थान की विराधना करता है उससे वह निग्रंथ पद से भ्रष्ट होता है ।।७।। नाम पूर्वक अठारह स्थान :
वयछकं कायछकं अकप्पो गिहिभायणं।
पलियंक निसज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं ।।6।। सं.छा. व्रतषट्कं कायषट्कं, अकल्पो गृहिभाजनम्।
पर्यको निषद्या च, स्नानं शोभावर्जनम् ।।८।। भावार्थ : छः व्रत, छः काय रक्षण, गृहस्थ के भाजन बर्तन प्रयोग में लेने का त्याग,. पलंग-कुर्सी-आरामकुर्सी आदि का त्याग, साध्वाचार के विपरीत आसन-गृह आदि का त्याग, अकल्पनीय पदार्थका त्याग देशतः सर्वतः स्नान का त्याग, शारीरिक विभूषा का त्याग इस प्रकार ये अठारह प्रकार के संयम स्थान हैं। प्रथम स्थान 'अहिंसा पालन' :
तस्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसिअं। अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमी ||९|| जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा। ते जाणमजाणं वा, न हणे णोवि घायए ||१०।। सवे जीवावि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं।
तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ||११|| सं.छा.ः तत्रेदं प्रथम स्थानं, महावीरेण देशितम्।
अहिंसा निपुणा दृष्टा, सर्वभूतेषु संयमः ।।९।। यावन्तो लोके प्राणिनः, तसा अथवा स्थावराः। तान् जाननजानन् वा, न हन्यानापि घातयेद् ।।१०।। सर्वे जीवा अपीच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम्।
तस्मात् प्राणवधं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति वै ।।११।। भावार्थ : पूर्वोक्त अठारह स्थानों में प्रथम श्री महावीर परमात्मा ने अहिंसा पालन कहा
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 92