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________________ हुआ है। यह अहिंसा धर्म के पालन आधाकर्मादि दोषों के त्याग द्वारा सूक्ष्म प्रकार से धर्म के साधन रूप स्वयं (भगवंत) ने देखा है इसी कारण से सभी जीवों के प्रति संयम रूप दया रखना चाहिए। .. इस लोक में जितने भी त्रस जीव एवं स्थावर जीव हैं उन समस्त जीवों को जानते अजानते स्वयं मारे नहीं, मरवाये नहीं उपलक्षण से मारते हुए की अनुमोदना न करें। क्योंकि भगवंत ने कहा है कि - सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इस कारण घोर नरकादि दुःख दायक प्राणीवधका निग्रंथ त्याग करता है। यह प्रथम स्थान ।।९-११।। द्वितीय स्थान 'असत्य त्याग' : अप्पणठ्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूआ, नोवि अन्नं वयावर ||१२|| मुसावाओ उ लोगम्मि, सव्वसाहूहिँ गरिहिओ। अविस्सासो अ भूआणं, तम्हा मोसं विवज्जए ||१३|| सं.छा. आत्मार्थं परार्थं वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयाद्। हिंसकं न मृषां ब्रूया,-त्राप्यन्यं वादयेत् ।।१२।। मृषावादस्तु लोके, सर्वसाधुभिर्हितः। अविश्वासश्च भूतानां, तस्मान्मृषावादं विवर्जयेत् ।।१३।। 'भावार्थ : स्व पर पीड़ा दायक असत्य वचन मुनि क्रोध से (लोभ से) भय से (हास्य से . एक का ग्रहण तज्जातीय का ग्रहण) स्व के लिए पर के लिए बोले नहीं दूसरों से बोलावे नहीं उपलक्षणं से बोलने वाले की अनुमोदना करे नहीं। .: . असत्य वचन विश्व में लोक में सभी उत्तम पुरुषों ने निंदनीय माना है। "प्राणीओं को असत्यभाषी अविश्वसनीय है, इस कारण से असत्य वचन का त्याग करना। दूसरा संयम स्थान ।।१२-१३।। तृतीय स्थान 'अदत्त अग्रहण' : चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जड़ वा बहुं। दंतसोहणमित्तंपि, उग्गहंसि अजाइया ||१४|| तं अप्पणा न गिण्हंति, नोऽवि गिण्हावर परं। अन्नं वा गिण्हमाणंपि, नाणुजाणंति संजया ||१५|| सं.छा. चित्तवदचित्तवद्वा, अल्पं वा यदि वा बहु। - दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा ।।१४।। सं.छा. तदात्मना न गृह्णन्ति, नापि ग्राहयन्ति परम्। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 93
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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