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शिक्षया सुसमायुक्तः, आख्याति विचक्षणः ।।३।। भावार्थ : असंभ्रान्त इन्द्रियों सहित मन को दमन करनेवाला सभी प्राणिओं के हितेच्छु हितकर्ता एवं, ग्रहण, आसेवन रूप शिक्षा से युक्त ऐसे विचक्षण आचार्य भगवंत राजादि के प्रश्नों के उत्तर देते हैं।।३।। . आचार्य भगवंत का कथन :
हंदि धम्मत्थकामाणं, निग्गंथाणं सुणेह मे।
आयारगोअरं भीम, सयलं दुरहिछिअं |४|| सं.छा.: हन्दि धर्मार्थकामानां, निर्ग्रन्थानां शृणुत मे।
आचारगोचरं भीमं, सकलं दुरधिष्ठितम् ॥४॥ भावार्थ : हे राजादि महानुभाव! धर्म के फलस्वरूप मोक्षेच्छु मुमुक्षु निग्रंथों के आचार क्रियाकांड को मैं कहता हूँ वह तुम सुनो! निग्रंथों का यह सभी आचार कर्म शत्रु के लिए महाभयंकर है उसी प्रकार अल्प सत्त्व वाले प्राणियों के लिए परिपूर्ण रूप से कठिनता से पालन किया जा सके वैसा है। शक्तिहीन व्यक्ति के लिए दुष्कर है।।४।। साध्वाचार की उत्कृष्टता :-.
नल्लत्थ परिसं वुत्तं, जं लोए परमदुच्चरं। .. विउलट्ठाणभाइरस, न भूअं न भविस्सइ ।।५।। सं.छा.: नान्यत्रेदृशमुक्तं, यल्लोके परमदुश्चरम्। . विपुलस्थानभाजिनः, न.भूतें न भविष्यति ।।५।। भावार्थ : हे राजादि महानुभव! ऐसा उपरोक्त शुद्ध आचार विश्व में अति दुष्कर है। दूसरे दर्शनों में तो ऐसी आचार प्रणाली है ही नहीं। संयम स्थान के पालन करनेवाले महापुरुषों को जिनमत के अलावा ऐसा आचार दृष्टिगोचर न हुआ न होगा ।।५।।
. सूत्रकार श्री ने साध्वाचार की उत्कृष्टता दर्शाते हुए स्पष्ट कहा है कि जिनमत में ही शुद्ध आचार है और ऐसे आचार पालक आत्मा ही आत्महित कर सकते हैं। आराधक कौन-कौन?
सखहुगंविअत्ताणं, वाहिआणं च जे गुणा।
अखंडफुडिआ कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा ||६|| सं.छा. सक्षुल्लकव्यक्तानां, व्याधितानां च ये गुणाः।
अखण्डास्फुटिताः कर्त्तव्यास्तत् शृणुत यथातथा ।।६।। भावार्थ : इस आचार धर्म का पालन, बाल श्रमण, वृद्ध श्रमण, ग्लान व्याधियुक्त श्रमण एवं व्याधिरहित बाल-युवा-वृद्ध सभी को आगे कहे जायेंगे वैसे आचार रूप गुणों का पालन, देश विराधना एवं सर्व विराधना रहित करना अर्थात् निरतिचार चारित्र पालन करना। जैसा आचार का स्वरूप है वैसा मैं कहता हूँ। तुम सुनो ।।६।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 91