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जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए || १५ || सं.छा.ः विश्राम्यन्निदं चिन्तयेद् हितमर्थं लाभार्थिकः ।
यदि मे अनुग्रहं कुर्युः, साधवः स्यामहं तारितः ।।९४।। साधुंस्ततो मनः प्रीत्या, निमन्त्रयेद् यथाक्रमम्। यदि तत्र केचनेच्छेयुः, तैः सार्धं तु भुञ्जीत ।। ९५ ।। भावार्थ ः विश्राम करते हुए विचार चिंतन करें कि इस आहार में से कोई मुनिभगवंत आहार ग्रहणकर मुझे अनुग्रहित करें तो मैं भवसागर से पार करवाया हुआ बनुं अर्थात् यह अनुग्रह मुझे भवसागर पार करने में उपयोगी बनें। गुरु भगवंत की आज्ञा लेकर सभी साधुओं को निमंत्रण करें जो कोई उसमें से ग्रहण करे तो उनको देने के बाद उनके साथ बैठकर आहार करें ।। ९४-९५ ।।
आहार कैसे करें ?
अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ भुंजिज्ज एगओ । आलोट भायणे साहू, जयं अपरिसाडियं ॥ ९६ ॥ तित्तगं व कडुअं व कसायं, अंबिलं व मद्दुरं लवणं वा । एयलद्धमन्नट्ठ- पउत्तं, महुघयं व भुंजिज्ज संजए ||१७|| अरसं विरसं वावि, सूइअं वा असूइअं । उल्लं वा जइ वा सुकं, मंथुकुम्मास भोअणं ॥ ९८ ॥ उप्पण्णं नाइहीलिज्जा, अप्पं वा बहु फासुअं। मुहालद्धं मुहाजीवी, भुंजिज्जा दोसवज्जिअं ।। ९९ ।। सं.छा.ः अथ कश्चिन्नेच्छेत्, ततो भुञ्जीतैककः ।
आलोके भाजने साधुः, यतं अपरिशाटयन् ।।९६।। तिक्तकं वा कटुकं वा कषायं, अम्लं वा मधुरं लवणं वा । एतल्लब्धमन्यार्थ प्रयुक्तं मधुघृतमिव भुञ्जीत संयतः ॥ ९७ ॥ अरसं विरसं वाऽपि, सूचितं वाऽसूचितम् । आर्द्रं वा यदि वा शुष्कं, मन्थुकुल्माषभोजनम् ।।९८।। उत्पन्नं नातिहीलयेत्, अल्पं वा बहु प्रासुकम्। मुधालब्धं मुधाजीवी, भुञ्जीत दोषवर्जितम् ।। ९९ ।। भावार्थ ः जब कोई मुनि भगवंत आहार ग्रहण न करे तो प्रकाश युक्त पात्र (चौड़े पात्र) में जयणापूर्वक हाथ में से या मुँह में से कण न गिरे, इस प्रकार अकेला आहार करें। उस समय वह आहार कटु हो, तीक्त हो, कषायला हो, खट्टा हो, मधुर हो, खारा हो तो भी देह निर्वाहार्थ, मोक्ष साधनार्थ आहार मुझे मिला है ऐसा जानकर उस आहार को मधुर
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 76