SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घृत युक्त मानकर या घृत जैसा प्रवाही पदार्थ शीघ्र ले लिया जाता है, उसी प्रकार आहार के स्वाद की ओर लक्ष न देकर, बाई दायी दाढों में संचालन किये बिना, पेट में डाल देना चाहिए। वह आहार संस्कार से रहित हो, या पूर्वकाल का विरस हो, सब्जी सहित हो या सब्जी रहित हो, सब्जी अल्प या अधिक हो, तुरंत का बना हुआ हो या शुष्क खाखरे आदि हो, बोर का भुक्का हो, उड़द के बाकुले हो, परिपूर्ण हो या अल्प हो और वह असार हो तो भी आगमोक्त विधि अनुसार प्राप्त निर्दोष आहार की निंदा न करन । गृहस्थ / दाता का कोई भी कार्य किये बिना (मंत्र तंत्र औषधादि से उपकार किये बिना) प्राप्त किया हुआ है एवं स्वयं की जाति कुल शिल्प आदि बताकर निदानरहित मुधाजीवी की तरह से प्राप्त किया है अतः आगमोक्त साधु को संयोजनादि पांच दोष का आसेवन किये बिना आहार करना चाहिए ।। ९६- ९९ ।। दुर्लभ कौन है ? दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा | मुहादाई मुहाजीवी, दोsवि गच्छंति सुग्गई || १००|| ॥त्ति बेमि ।। पिंडेसणांए पढमो उद्देसो समत्तो ||१|| सं.छा.ः दुर्लभास्तु मुधा दातारः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः । मुधादातारो मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ॥१००॥ ।। इति ब्रवीमि ।। पिण्डैषणायाः प्रथम उद्देशः समाप्तः ॥ १ ॥ भावार्थ : किसी भी प्रकार से प्रत्युपकार लेने की भावना से रहित निःस्वार्थी दाता दुर्लभ है उसी प्रकार मंत्र तंत्रादि से चमत्कार बताए बिना, दाता पर भौतिक उपकार करने की भावना से रहित, स्वधर्मपालन में निमग्न निःस्वार्थी ग्रहणकर्ता मुनि भी दुर्लभ है। मुधाजीवी निष्काम भाव से देनेवाला, एवं एकमेव मोक्षार्थ जीवन यापन * करनेवाला मुधाजीवी मुनि ये दोनों सुगति में जाते हैं । । १०० ।। श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी मनक मुनि से कहते हैं कि ऐसा श्री महावीरस्वामीजी श्री सुधर्मास्वामी से कहा श्री सुधर्मास्वामी ने श्री जम्बूस्वामी से कहा वैसा मैं कहता *** द्वितीय उद्देश : पडिग्गहं संलिहित्ताणं, लेवमायाए संजए । दुगंधं वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न छहुए || १ || सं.छा.ः प्रतिग्रहं संलिख्य, लेपमर्यादया संयतः । दुर्गन्धि वा सुगन्धि वा सर्वं भुञ्जीत नोज्झेत् ॥१॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 77
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy