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________________ सं.छा.ः अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, दानार्थं प्रकृतमिदम् ।।४७।। . तादृशं भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम्। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४८।। अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। यज्जानीयात्, शृणुयाद्वा पुण्यार्थं प्रकृतमिदम्॥४९।। तद् भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम्। . ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५०।।.. अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। यज्जानीयाद् शृणुयाद्वा, वनीपकार्थं प्रकृतमिदम्॥५१॥ तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम्। . ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्।।२।। अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा। यज्जानीयाद्, शृणुयाद्वा श्रमणार्थं प्रकृतमिदम्।।५३।। तद् भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम्। ... ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्।।५४।।' भावार्थ : स्वयं ने जान लिया हो, सुन लिया हो कि गृहस्थ ने अशन, पान खादिम स्वादिम रूप चारों प्रकार का आहार दान देने के लिए, पुण्य के लिए, भिक्षाचरों के लिए, या श्रमण भगवंतों के लिए बनाया है तो वहोराने वाले को कह दे कि यह आहार अकल्पनीय होने से हमें नहीं कल्पता ।।४७-५४।। उद्देसियं कीअगडं, पूइकम्मं च आहडं। अझोअर पामिच्चं, मीसजायं, विवज्जए||५५|| सं.छा.: औदेशिकंक्रीतकृतं, पूतिकर्म चाहतम्। अध्यवपूरकं प्रामित्यं, मिश्रजातं विवर्जयेद् ।।५।। भावार्थः मुनिओं को वहोराने के उद्देश्य से बनाया हो, खरीदकर लाया हो, शुद्ध आहार में आधाकर्मादि आहार का संमिश्रण किया हो, सामने लाया हुआ हो, साधुओं को आये जानकर बनते हुए आहार में वृद्धि की गयी हो ऐसा आहार, एवं वहोराने के लिए मांगकर लाया हो, अदलबदलकर लाया हो, उधार लाया हो, साधु श्रावक दोनों के लिए मिश्ररूप में बनाया हो तो ऐसा आहार मुनि को छोड़ देना चाहिए। ग्रहण न करना।।५।। उग्गमं से अ पुच्छिज्जा, कस्सठ्ठा केण वा कडं?|सुच्चा निस्संकिअं सुद्धं, पडिगाहिज्ज संजए ||५६||. श्री दशवैकालिक सूत्रम् -- 68
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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