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________________ सं.छा.ः स्तनकं पाययन्ती, दारकं वा कुमारिकाम्। तन्निक्षिप्य रुदद्, आहरेत्पानभोजनम् ।।४२॥ तद्भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम्। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।।४३।। यद्भवेद् भक्तपानं तु, कल्पाकल्पयोः शङ्कितम्। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम्।।४४।। दकवारेण पिहितं, नीशया(पेषण्या) पीठकेन वा। लोढेन वापि लेपेन, श्लेषेण वा केनचित् ॥४५।। तच्चोद्भिद्य-दद्या, च्छ्रमणार्थं वा दायकः। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४६।। भावार्थःस्तनपान करवाती हुईमाता बालकको छोड़कर वहोराये तो जिस आहार पानी में निर्दोष है या सदोष ऐसी शंका हो तो, आहार पानी, पानी के घड़े से चटनी आदि जिस पत्थर पर लोढ़ी जाती है उस पत्थर से,काष्ठ पीठ से, चटनी जिससे बनायी जाती है, उस शीलापुत्रकेण अर्थात् उस छोटे शीलाखंड से, मिट्टी, लाक्ष आदि के लेप से ढंके हुए, बंध किये हुए बर्तन से ढक्कन आदि दूर कर, लेप आदि निकालकर वहोरावे तो मुनि मना करे कि मुझे ऐसा आहार नहीं कल्पता ॥४२-४६।। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, दाणट्ठापगडं इमं ।।४७|| तारिस भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिी दितिअं पडिआइक्वे, न मे कप्पड़ तारिस ।।४८|| असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, पुण्णठ्ठा पगडं इमं ।।४९|| तं भवे. भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिी दितिअं पडिआइक्रने, न मे कप्पड़ तारिसं ॥५०॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं ।।५१|| तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिस ।।५२।। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं ।।५३।। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइवखे, न मे कप्पइ तारिसं ||५४|| श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 67
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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