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भावार्थ : मार्ग में जाते हुए साधुओं को ऊँचे, नीचे न देखना, स्निग्धादि गोचरी की प्राप्ति हर्षित न बनना, न मिलने पर क्रोधादि से आकुल, व्याकुल न होना, स्वयं की इंद्रियों को अपने आधीन रखकर चलना ।।१३।।
दवदवस्स न गच्छेज्जा, भासमाणो अ गोअरे । हसंतो नाभिगच्छिज्जा, कुलं उच्चावयं सया || १४ || सं.छा.: द्रुतं द्रुतं न गच्छेत्, भाषमाणश्च गोचरे । हसन्नाभिगच्छेत्, कुलमुच्चावचं सदा ॥१४॥
भावार्थ : ऐश्वर्यादि की दृष्टि से ऊँच, नीच, मध्यम कुलों में गोचरी जाते समय शीघ्रतापूर्वक न चलना, भाषा का प्रयोग करते हुए न चलना, हंसते हुए भी नहीं चलना || १४ ||
आलोअं थिग्गलं दारं, संधिं दगभवणाणि अ चरंतो न विनिज्झाए, संकट्ठाणं विवज्जए | | १५ ||
सं.छा.: आलोकं चितं द्वारं, सन्धिं दकभवनानि च ।
चरेन्न विनिध्यायेत्, शङ्कास्थानं विवर्जयेद् ।।१५।।
भावार्थ : गोचरी हेतु गए हुए साधु को गृहस्थों के घर के वेंटीलेशन, बारी, द्वार (कमरे के द्वार आदि), चोर के द्वारा बनाये गये छेद, दीवार के भाग को, पानी रखने के स्थान को, इन स्थानों की ओर दृष्टि लगाकर नहीं देखना क्योंकि ये सब शंका के स्थान हैं ।। १५ ।।
वर्तमान युग में बाथरुम, लेट्रीन, टी. वी., वीडियो रखने के स्थान की ओर नजर न जाये इसका पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।
रणी गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाण च। संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवज्जर || १६ ||
सं.छा.ः राज्ञो गृहपतीनां च, रहःस्थानमारक्षकाणां च। सङ्क्लेशकरं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१६॥
भावार्थ : गोचरी गये हुए मुनि को राजा, गाथापति, ग्राम संरक्षक आदि नेताओं के गुप्त स्थान की ओर न देखना, न जाना एवं क्लेशकारक स्थानों का दूर से त्याग कर देना `चाहिए। इस श्लोक में दर्शित स्थानों का दूर से त्याग न करे तो साधु विपत्तियों को
आमंत्रण दे देता है ॥१६॥
कैसे घरों में प्रवेश नहीं करे?
पडिकुट्ठकुलं न पविसे, मामगं परिवज्जए।
अचियत्तं कुलं न पविसे, चियत्तं पविसे कुलं ।। १७ ।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 60