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________________ सं.छा.ः प्रतिकुष्टकुलं न प्रविशेत्, मामकं परिवर्जयेद्। अप्रीतिकुलं न प्रविशेत्, प्रीतिमत् प्रविशेत्कुलम्।।१७।। भावार्थ : सूतक युक्त गृह, अस्पृश्य जाति के गृह, गृहपति द्वारा निषेध किये हुए घर, अप्रीति वाले घर इन घरों में गोचरी आदि के लिए मुनि प्रवेश न करें। लोकनिंदा एवं शासन की अवहेलना के प्रसंग उपस्थित होने की संभावना के कारण ऐसे घरों में साधु गोचरी न जाये एवं इनके अलावा आगमोक्त सभी घरों में गोचरी जाय ॥१७॥ साणी-पावार-पिहिअं, अप्पणा नावपंगुरे। कवाडं नोपणुल्लिज्जा, उग्गहंसि अजाइआ||१८|| सं.छा. शाणीप्रावारपिहितं, आत्मना नापवृणुयात्। कपाटं न प्रणोदयेद्, अवग्रहमयाचित्वा ॥१८॥ भावार्थ : आगाढ कारण से गृहपति से अवग्रह की याचना किये बिना, अविधिपूर्वक, धर्मलाभ का शब्दोचार किये बिना, ताड़पत्री, कंतान, वस्त्र आदि से आच्छादित घर के द्वार, लकड़ी के द्वार, लोहे की जाली आदि से बंद द्वारखोलना नहीं, धक्का देकर खोलना नहीं ।।१८।। इससे यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ के घर में उनकी अनुमति प्राप्त किये बिना मुनि प्रवेश नहीं कर सकता। देह रक्षा हेतु उपयोगी विधान :- . ..., गोअरग्गपविठ्ठो अ, वच्चमुत्तं न धारए। ओगासं फासु नच्चा, अणुन्नविअ वोसिरे||१९|| सं.छा. गोचराग्रप्रविष्टस्तु, वर्षोमूत्रं न धारयेत्। . अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य व्युत्सृजेत्।।१९।। भावार्थ : मूलमार्ग से तो गोचरी जाने के पूर्व लघुशंका बड़ीशंका का निवारण करना चाहिए। फिर भी शारीरिक कारणों से गोचरी जाने के बाद शंका हो जाय तो सूत्रकार कहते हैं कि - बड़ीनीति, लघुनीति की शंका को रोकना नहीं। गृहस्थ की आज्ञा लेकर निर्जीव भूमि पर शंका का निवारण करना, वोसिराना चाहिए ।।१९।। - सूत्रकार श्री ने साधुओं के आरोग्य को सुरक्षित रखने की दृष्टि से यह आदेश दिया है। लघुनीति, बड़ीनीति की शंका को रोकने से अजीर्ण का रोग उद्भव होता है। अजीर्णे प्रभवा रोगाः' अजीर्ण अनेक रोगों का जन्मस्थान है। प्रवेश कहाँ करें? णीअदुवारं तमसं, कुठ्ठगं परिवज्जए। अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा।।२०।। . श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 61
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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