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किं मे कडं? किं च मे किच्चसेसं?, किं सक्कणिज्जं न समायरामि?||१२|| सं.छा.: यः पूर्वरात्रापररात्रकाले, सम्प्रेक्षते आत्मानमात्मना।
___किं मे कृतं? किं च मे कृत्यशेषं?, किं शक्यं न समाचरामि? ।।१२।। भावार्थ : साधु रात्रि के प्रथम प्रहर में और अंतिम प्रहर में स्वात्मा से स्वात्मा का आलोचन करें, विचार करें कि - मैंने क्या क्या किया? मेरे करने योग्य कार्यों में से कौनसे कार्य प्रमाद वश नहीं कर रहा हूँ? इस प्रकार गहराई से सोचें विचारें फिर उस अनुसार शक्ति को छूपाये बिना आचरण करें ।।१२।। दोष मुक्ति का उपाय :किं मे परोपासह किं च अप्पा, किं वाहं खलिअं न विवज्जयामि। इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुज्जा ||१३|| सं.छा.ः किं मे परः पश्यति? किं चात्मा, किंवाऽहं स्खलितं न विवर्जयामि।
इत्येवं सम्यगनुपश्यन, अनागतं नो प्रतिबन्धं कुर्यात् ।।१३।। भावार्थ : क्या मेरे द्वारा हो रही क्रिया की स्खलना को स्वपक्षी (साधु) परपक्षी (गृस्थादि) देखते हैं? या चारित्र की स्खलना को मैं स्वयं देखता हूँ? (मेरी भूल को मैं देखता हूँ?) चारित्र की स्खलना को मैं देखते हुए, जानते हुए भी स्खलना का त्याग क्यों नहीं करता? इस प्रकार जो साधु भलीभांति विचार करता है तो वह साधु भावी काल में असंयम प्रवृत्ति नहीं करेगा ।।१३।। जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, कारण वाया अदु माणसेणं| तत्थेव धीरो पडिसाहरिज्जा, आइन्लओ खिप्पमिव खलीणं ||१४|| सं.छा.ः यत्रैव पश्येत् क्वचिद् दुष्प्रयुक्तं, कायेन वाचाऽथ मानसेन। .. तत्रैव धीरः प्रतिसंहरेच्च, आकीर्णकः क्षिप्रमिव खलीनम् ॥१४॥ • भावार्थः जब-जब जहां कहीं भी मन-वचन-काया की दुष्प्रवृत्ति दिखायी दे, वहां धीर
बुद्धिमान् साधुसंभल जाय, जागृत बन जाय, भूल को सुधार ले। उस पर दृष्टांत कहते हैं कि जैसे जातिमान् अश्व लगाम को खिंची जानकर, नियमित गति में आ. जाता है। सम्भल जाता है। साधु दुष्प्रवृत्ति का त्यागकर, सम्यग् आचार को स्वीकार करें ।।१४।। प्रतिबुद्ध जीवी :जस्सेरिसा जोग जिइंदिअस्स, धिईमओ सप्पुरिसस्स निच्चं। तमाहु लोट पडिबुद्धजीवी, सो जीअइ संजम-जीविटणं ||१५||
सं.छा.ः यस्येदृशा योगा जितेन्द्रियस्य, धृतिमतः सत्पुरुषस्य नित्यम्। ..... तमाहुलॊके प्रतिबुद्धजीविनं, स जीवति संयमजीवितेन ॥१५।।
भावार्थ : जितेन्द्रिय, संयम में धीर सत्पुरुष ऐसे साधुओं के स्वहित चिंतन की, देखने
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 179