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की प्रवृत्ति युक्त मन, वचन, काया के योग निरंतर प्रवृत्तमान है। ऐसे मुनि भगवंतों को लोक में 'प्रतिबुद्ध जीवी' कहा जाता है। ऐसे गुण युक्त साधु विचारवंत होने से संयम प्रधान जीवन जीते हैं ।। १५ ।।
अंतिम अणमोल उपदेश :
अप्पा खलु सययं रक्खि अव्वो, सव्विंदिरहिं सुसमाहिरहिं । अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ||१६|| ॥ त्ति बेमि ॥
सं.छा.ः आत्मा खलु सततं रक्षितव्यः, सर्वेन्द्रियैः सुसमाहितेन ।
अरक्षितो जातिपन्थानमुपैति, सुरक्षितः सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यते ॥ १६ ॥ ।। इति ब्रवीमि ॥
भावार्थ : सूत्रकार श्री कह रहे हैं कि - सभी इंद्रियों के विषय व्यापारों से निवृत्त होकर परलोक के अनिष्टकारी कष्टों से निरंतर स्वात्मा का रक्षण करना चाहिए। जो तुम इंद्रियों के विषय व्यापारों से आत्मा की सुरक्षा नहीं करोगे तो भवोभव (जातिपंथ) संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा। जो अप्रमत्तत्ता पूर्वक आत्मा का रक्षण करोगे तो शारीरिक मानसिक सभी दुःखों से दुःख मात्र से मुक्त हो जाओगे ।। १६ ।।
यह उपदेश तीर्थंकरादि के कथनानुसार सूत्रकार श्री कहते हैं। ॥ इति श्री दशवैकालिकसूत्रं समाप्तम् || ***
"तृषाणामकणानां हि किं कस्याप्यादो भवेत?"
धान्यरहित तुष (घास ) का क्या कहीं आदर होता है? वैसे ही आचारहीन व्यक्ति का क्या कहीं आदर होता है ?
"गुरोः पदोर्मूलं आमरणान्तं न मोकव्यम्"
गुरु के चरणकमल को जीवन पर्यन्त नहीं छोडने चाहिए।
" धण्णा आवकहार गुरुकुलवासं ण मुंचंति" वे शिष्य धन्यवाद के पात्र हैं जो जीवन पर्यन्त गुरुकुलवास को नहीं छोडते ।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 180