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________________ गृहस्थ परिचय का त्याग : गिहिणो वे आवडिअं न कुज्जा, अभिवायण-वंदण - पूअणं वा । असंकिलिट्ठेहिं समं वसिज्जा, मुणी चरितस्स जओ न हाणी ||९|| सं.छा.ः गृहिणो वैयावृत्त्यं न कुर्याद्, अभिवादनवन्दनपूजनं वा । असङ्क्लिष्टैः समं वसेद्, मुनिश्चारित्रस्य यतो न हानिः || ९ || भावार्थ ः साधु गृहस्थ की वैयावच्च न करें। वचन से नमस्कार, काया से वंदन, प्रणाम और वस्त्रादि द्वारा पूजा न करें। ऐसा करने से गृहस्थों से परिचय बढ़ने से चारित्र मार्ग भ्रष्ट हो जाता है। दोनों का इससे अकल्याण होता है। इसी कारण से चारित्र की हानि हो ऐसे असंक्लिष्ट परिणामवाले साधुओं के साथ रहना ।। ९ ।। संग किसका : नया लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहिअं वा गुणओ समं वा । इको वि पावाइं विवज्जयंतो, विहरिज्ज कामेसु असज्जमाणो || १०।। सं.छा.ः न यदि लभेत निपुणं सहायं, गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एकोऽपि पापानि विवर्जयन्, विहरेत् कामेषु असज्यमानः ॥१०॥ भावार्थ ः स्वयं से ज्ञानादि गुणों में अधिक या स्व समान गुण युक्त मुनि के साथ या गुण हीन होने पर भी जात्यकंचन समान - विनीत- निपुण - सहायक साधु जो न मिले तो संहनन आदि व्यवस्थित हो तो पाप के कारणभूत असद् अनुष्ठानों का त्याग करके, कामादि में आसक्त न होकर अकेले विहार करें। पर, पासत्थादि पाप मित्रों के साथ में न रहें ॥ १० ॥ कहां कितना रहना ? संवच्छरं वा वि परं पमाणं, बीअं च वासं न तहिं वसिज्जा । सुत्तस्स मग्गेण चरिज्ज भिक्खू, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेई || ११|| सं.छा.ः संवत्सरं वाऽपि परं प्रमाणं, द्वितीयं च वर्षं न तत्र वसेत् । सूत्रस्य मार्गेण चरेद् भिक्षुः, सूत्रस्यार्थो यथाऽऽज्ञापयति ।।११।। भावार्थ : मुनि ने जिस स्थान पर चातुर्मास किया है और शेष काल में एक महिना जहां रहा है वहां दूसरा चातुर्मास एवं दूसरा मास कल्प न करें। दूसरे तीसरे चातुर्मास या मासकल्प के बाद वहां रहा जा सकता है। भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग से विहार करें। सूत्र का अर्थ जिस प्रकार आज्ञा दे अर्थात् जिनाज्ञानुसार विहार करें। गाढ कारण से कालमर्यादा से अधिक रहना पड़े तो भी स्थान बदलकर आज्ञा का पालन करें। कमरे का कोना बदलकर भी आज्ञा का पालन करें ॥ ११ ॥ साधु का आलोचन जो पुव्वरत्तावररत्तकाले, संपिक्खर अप्पा-मप्पगेणं। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 178 --
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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