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विउल-हिय-सुहावहं पुणो, कुलई सो पय-खेममप्पणो ||६|| जाइमरणाओ मुच्चई, इत्थंत्थं च चरई सव्वसो। सिद्धे वा भवई सासर, देवे वा अप्परए महड्ढिए ||७|| ति बेमि || * सं.छा. अभिगम्य चतुरः समाधीन्, सुविशुद्धः सुसमाहितात्मा।
विपुलहितसुखावहं पुनः, करोत्यसौ पदं क्षेममात्मनः ।।६।। .. जातिमरणान्मुच्यते, इत्थंस्थं च त्यज्यति सर्वशः। सिद्धो वा भवति शाश्वतः, देवो वा, अल्परतो महर्द्धिकः ।।७।।
॥इति ब्रवीमि ।। भावार्थ : चार प्रकार की समाधि के स्वरूप को पूर्णरूप से जानकर, तीन योग से सुविशुद्ध सतरह प्रकार के संयम पालन में सुसमाहित श्रमण अपने लिए विपुल हितकारी एवं सुखद स्व स्थान (मोक्ष पद) को प्राप्त करता है ।।६।। _इन समाधियों से युक्त श्रमणजन्म मरण से मुक्त होता है। नरकादिअवस्थाओं को सर्वथा छोड़ देता है। शाश्वत सिद्ध होता है या अल्पविकारवाला महर्द्धिक देव बनता है।।७।।
श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते हैं कि ऐसा मैं तीर्थंकरादि द्वारा कहा हुआ कहता हूँ।
. १० सभिक्षु नामकं दशमं अध्ययनम् संबंध - नवम अध्ययन में विनय का स्वरूप दर्शाया है। उस विनय धर्म का पालन उत्कृष्टता से मुनि ही कर सकता है। विनय धर्म पालन युक्त, किन-किन आचरणाओं • का पालन करने से, आत्महित साधक 'भिक्षु' कहा जाता है। उसका स्वरूप 'स
भिक्खू' नामक दशम अध्ययन में दर्शाया है। :: उपयोगी शब्दार्थ - (निक्खम्म) गृहस्थावास से निकलकर (हविज्जा) होता है (वसं)
परतंत्रता (पडियायइ) पान करे, सेवन करे ॥१॥ (सुनिसियं) अतितीक्ष्ण धारयुक्त ।।२।। (वहणं) हिंसा (पए) पकावे ।।४।। (रोइय) रूचि धारणकर (अत्तसमे) स्व समान (मन्नेज्ज) माने (छप्पि काए) छ काय ।।५।। (धुवजोगी) स्थिर योगी (अहणे) पशु से रहित ।।६।। (निज्जाय-रूव रयए) स्वर्ण रूप्यादि का त्यागी।।७।। (होही) होगा (अट्ठो) काम के लिए (सुए) कल (परे) परसों (निहे) रखें (निहावए) रखावे ।।८।। (छन्दिय) बुलाकर, आमंत्रित कर ।।९।। (वुग्गहियं) क्लेश युक्त (निहु इन्दिए) इंद्रियों को शांत रखनेवाला (अविहेडए) तिरस्कृत न करना, उचित कार्य में अनादर न करना ।।१०।। (गाम कंटए) इन्द्रियों को दुःख का कारण (तज्जमाणो) तर्जना (मात्सर्य) वचन
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 161