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________________ (सप्पहासे) अट्टहास्ययुक्त (समसुहदुक्खसहे) समभावपूर्वक सुखदुःख सहन करे ।।११।। (भीयए) भय पावे. (दिअस्स) देखकर (अभिकंखए) इच्छा रक्खे ।।१२।। (असई) सर्वकाल (वोसट्ठचत्तदेहे) रागद्वेष रहित, आभूषण रहित देह युक्त वचन से . घायल (अकुट्ठ) तुच्छकार के वचन से घायल (हए) दंड से घायल (लूसिए) खड्गादि. से घायल ।।१३।। (अभिभूय) जीतकर (विइत्तु) जानकर (सामणिए) साधु को ।।१४।। (जाइपहाओ) जातिपथ संसारमार्ग से (संजए) वश में रखनेवाला (अज्झप्परए) अध्यात्म में लीन ।।१५।। (उवहिम्मि) उपधि में (संगावगए) द्रव्य भाव संग रहित (अन्नायउंछं) अपरिचित घरों से शुद्ध अल्प वस्त्र लेने वाला (पुल निप्पुलाए) चारित्र में असारता उत्पन्न करनेवाले दोषों से रहित ।।१६।। (अलोल) लोलुपता रहित (इड्डि) ऋद्धि आदि लब्धि को (अणिहे) माया रहित ।।१७।। (वएज्जा) कहे ।।१८।। (अज्जपयं) शुद्धधर्मको (कुसीललिंग) कुशीलता की चेष्टा को (हासंकुहए) हास्य करनेवाला ।।२०।। (छिन्दित्तु) · . छेदकर ।।२१।। वांत भोगों का अनासेवी:निक्खम्ममाणाइ य बुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिओ हविज्जा। इत्थीण वसं न यावि गच्छे, वंतं नो पडियायइ जे स भिक्खू ||१|| सं.छा.: निष्क्रम्य, आज्ञया च बुद्धवचने, नित्यं चित्तसमाहितो. भवेत्। __ स्त्रीणां वशं न चापि गच्छेद्, वान्तं नो प्रत्यापिबति यः स भिक्षुः ।।१।। भावार्थ: तीर्थंकरादि के उपदेश से गृहस्थाश्रम से निकलकर, निग्रंथ प्रवचन में सदा अति प्रसन्नतापूर्वक, चित्त समाधियुक्त बनना चाहिए। चित्त समाधियुक्त रहने हेतु मुनि, सभी असत् कार्यों के बीज रूपी स्त्री के वश में न आवे (स्त्री की आधिनता स्वीकार न करे) वांत भोगों को पुनः भोगने की चाहना न करे। वही भिक्षु है ।।१।। हिंसा से रहित :पुढविं न खणे न खणावर, सीओदगं न पिए न पियावए। अगणि-सत्थं जहा सुनिसियं, तं न जले न जलावर जे स भिक्खू ।।२।। अनिलेण न वीए न वीयावर, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए। . बीयाणि सया विवज्जयन्जो, सचित्तं नाहारए जे स भिक्खू ।।३।। सं.छा.ः पृथिवीं न खनति न खानयति, शीतोदकं न पिबति न पाययति। अग्निः शस्त्रं यथा सुनिशितं, तं न ज्वलति न ज्वालयति यः स भिक्षुः ।।२।। अनिलेन न वीजयति न वीजयति, हरितानि न छिनत्ति न छेदयति। . बीजानि सदा विवर्जयन्, सचित्तं नाहारयति यः स भिक्षुः ।।३।। भावार्थ : जो पृथ्वीकाय का खनन् न करे न करावे, सचित्त जल न पीयें न पीलावे, सुतीक्ष्णशस्त्रसम षड्जीवनिकाय घातक अग्नि न जलावे,नजलवाये,यानि पृथ्वीकाय श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 162
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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