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श्रुतानि चाधीत्य, रतः श्रुतसमाधौ ।।३।। भावार्थ : श्रुत समाधि चार प्रकार से है। वह इस प्रकार -
(१) मुझे श्रुतज्ञान की प्राप्ति होगी अतः अध्ययन करना चाहिए। (२) एकाग्र चित्त वाला बनूंगा अतः अध्ययन करना चाहिए। (३) आत्मा को शुद्ध धर्म में स्थापन करूंगा। अतः अध्ययन करना चाहिए।
(४) शुद्ध धर्म में स्वयं रहकर दूसरों को शुद्ध धर्म में स्थापन करूंगा इस हेतु अध्ययन करना चाहिए।
इस अर्थ को बतानेवाला एक श्लोक कहा है।
अध्ययन में निरंतर तत्पर रहने से ज्ञान की प्राप्ति होती है, उससे चित्त की स्थिरता रहती है, स्वयं स्थिर धर्मात्मा दूसरों को स्थिर करता है और अनेक प्रकार के सिद्धान्तों को रहस्य युक्त जानकर श्रुत समाधि में रक्त बनता है ।।३।। तप समाधि :
चउबिहा खलु तवसमाही भवइ, तं जहा-नो इहलोगठ्ठयार तवमहिट्ठिज्जा १, नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा २, नो कित्ति-वण्णसद्दसिलोगट्ठयार तवमहिट्ठिज्जा ३, नन्नत्थ निज्जरठ्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा ४, चउत्थं पयं भवइ, भवइ य एत्थ सिलोगो ।। विविह गुण-तवो-रए य निच्चं, भवइ निरासर निज्जरहिए।
तवसा धुणइ पुराण-पावगं, जुत्तो सया तव-समाहिए ||४|| सं.छा. चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति, तद्यथा-नेह लोकार्थं : तपोऽधितिष्ठेत् १, नो परलोकार्थं तपोऽधितिष्ठेत् २ नो कीर्तिवर्ण
शब्दश्लाघार्थं तपोऽधितिष्ठेत् ३ नान्यत्र निर्जरार्थं तपोऽधितिष्ठेत् ४ चतुर्थं पदं भवति, भवति चात्र श्लोकः ॥ विविधगुणतपोरतश्च नित्यं, भवति निराशो निर्जरार्थिकः।
· तपसा धुनोति पुराणपापं, युक्तः सदा तपःसमाधौ ।।४।। भावार्थ : तप समाधि चार प्रकार से है वह इस प्रकार -
(१) इह लोक में लब्धि आदि की प्राप्ति हेतु तप न करना।
(२) परलोक में देवादि की सुख-सामग्री की प्राप्ति हेतु तप न करना। । (३) सर्व दिशा में व्यापक कीर्ति, एक दिशा में व्यापक (यश) वर्ण, अर्धदिशा में व्यापक प्रशंसा वह शब्द एवं उसी स्थान में प्रशंसा वह श्लोक, अर्थात् कीर्ति,वर्ण, शब्द एवं श्लोक हेत तप न करना। - (४) किसी भी प्रकार की इच्छा के बिना एकमेव निर्जरार्थ तप करना। यह
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 159