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अल्लायउंछं चरई विसुद्धं, जवणठ्ठया समुयाणं च निच्चं।
अलन्दुयं नो परिदेवएज्जा, लढुं न विकत्थयइ स पुज्जो ||४|| सं.छा.: अज्ञातोञ्छं चरति विशुद्धं, यापनार्थं समुदानं च नित्यम्।
___ अलब्ध्वा न परिदेवयेत्, लब्ध्वा न विकत्थते स पूज्यः ।।४॥ . भावार्थ : जो मुनि अपरिचित घरों से विशुद्ध आहार ग्रहणकर, निरंतर संयम भार को वहन करने हेतु देह निर्वाहार्थे गोचरी करता है, भिक्षा न मिलने पर खिन्न न होकर उस नगर या दाता की निंदा प्रशंसा नहीं करता वह मुनि पूज्य है ।।४।। संथार-सेज्जा-सण-भत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभे वि सन्ते। जो एवमप्पाणभितोसएज्जा, संतोस-पाहन्न-रए स पुज्जो ||५|| सं.छा.ः संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि, अल्पेच्छताऽतिलाभेऽपि सति।..
__य एवमात्मानमभितोषयति, सन्तोषप्राधान्यरतः स पूज्यः ।।५।। .... भावार्थ : जो साधु संस्तारक पाट आदि शय्या, आसन, आहार पानी आदि देह निर्वाहार्थ संयम पालनार्थ उपकरण विशेष रूप में मिल रहे हो तो भी संतोष को प्रधानता देकर जैसे-तैसे संथारादि से स्वयं का निर्वाह करता है वह पूज्य है।।५।। सका सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छहया नरेणं| . अणासए जो उ सहेज्ज कंटए, वईमए कण्णसरे स पुज्जो ||६|| सं.छा.ः शक्याः सोढुं, आशया कण्टकाः, अयोमया उत्सहता नरेण। ..
अनाशया यस्तु सहेत कण्टकान्, वचोमयान् कर्णसरान् स पूज्यः ।।६॥ . भावार्थ : धनार्थी आत्मा धनार्थ धन की आशा से लोहमय कंटकों को उत्साहपूर्वक सहन करता है पर जो आत्मसुखार्थी मुनि किसी भी प्रकार की आशा के बिना कर्णपटल में पैठते हुए वचन रूपी कंटकों को उत्साहपूर्वक सहन करता है वह पूज्य है।।६।। मुहुत्त-दुक्खा उ हवन्ति कंटया, अओमया ते वि तओ सु-उद्धरा। वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ||७|| सं.छा.: मुहूर्त्तदुःखास्तु भवन्ति कण्टकाः, अयोमयास्तेऽपि ततः सूद्धराः।
वाग्दुरुक्तानि दुरुद्धराणि, वैरानुबन्धीनि महाभयानि ।।७।। भावार्थ : लोहमय काँटे मुहूर्त मात्र दुःखदायक है एवं वे सुखपूर्वक निकाले जा सकते हैं, पर दुर्वचन रूपी काँटे सहजता से नहीं निकाले जा सकते। वे वैरानुबंधी हैं। वैर की परंपरा बढ़ानेवाले हैं। और कुगति में भेजने रूप महाभयानक हैं ।।७।। समावयंता वयणाभिघाया, कण्णंगया दुम्मणियं जणंति। धम्मो ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिर जो सहई स पुज्जो ।।४।। सं.छा.: समापतन्तो वचनाभिघाताः, कर्णं गता दौर्मनस्यं जनयन्ति। .
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 154