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तृतियोद्देशकः शिष्य पूजनीय कब बनता है? आयरियं अग्गि-मिवाहिअग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिज्जा। आलोईयं इंगिअमेव नच्चा, जो छंदमाराहयई स पुज्जो ||१|| सं.छा. आचार्यमग्निमिवाहिताग्निः, शुश्रूषमाणः प्रतिजागृयात्।
.. आलोकितमिङ्गितमेव ज्ञात्वा, यश्छन्दमाराधयति स पूज्यः ।।१।। भावार्थ : जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण अग्नि को देव मानकर उसकी शुश्रुषा जागरूक बनकर करता है। उसी प्रकार मुनि, सद्गुरु आचार्यादि के जो-जो कार्य हो, उन-उन कार्यों को कर, सेवा करे जैसे आचार्यादि सद्गुरु वस्त्र के सामने नजर करे, शीतऋतु हो तो समझना कि उन्हें कंबलादि की आवश्यकता है यह आलोकित अभिप्राय है, और जैसे उठने को तैयार हो, उस समय दंड आदि की आवश्यकता है, इत्यादि इंगित अभिप्राय को समझकर, उस अनुसार कार्य करनेवाला शिष्य पूज्य होता है। वह कल्याणभागी बनता है.।।१।। .
आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वकं|
जहोवइठं अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुज्जो ||२|| सं.छा.: आचारार्थं विनयं प्रयुङ्क्ते, शुश्रूषन् परिगृह्य वाक्यम्। _ यथोपदिष्टमभिकाङ्क्षन, गुरुं तु नाशातयति स पूज्यः ।।२।। भावार्थ : जो ज्ञानादि पंचाचार के लिए विनय करता है, आचार्यादि सद्गुरु की आज्ञा को सुनने की इच्छा रखनेवाला है, उनकी आज्ञा को स्वीकारकर, उनके कथनानुसार श्रद्धापूर्वक कार्य करने की इच्छावाला है एवं उनके वचनानुसार कार्यकर विनय का पालन करता है एवं उनके कथन से विपरीत आचरणकर आशातना न करनेवाला शिष्य • है वह मुनि पूज्य है।।२।।
राइणिएसु विणयं पउंजे, डहरा वि य जे परियाय-जेठा, '. नियत्तणे वट्टई सच्चवाई, ओवायवं वक्षकरे स पुज्जो ||३|| सं.छा.: रात्निकेषु विनयं प्रयुङ्क्ते, डहरा अपि च ये पर्यायज्येष्ठाः।
नीचत्वे वर्तते सत्यवादी, अवपातवान् वाक्यकरः स पूज्यः ।।३।। भावार्थ : जो मुनि रत्नाधिक मुनियों का एवं वय-पर्याय में अल्पवयस्क भी ज्ञान-व्रतपर्याय में ज्येष्ठ हैं, उनका विनय करता है, अपने से अधिक गुणवानों के प्रति नम्रतापूर्वक वर्तन करता है, जो सत्यवादी है, सद्गुरु भगवंतों को वंदन करनेवाला है, आचार्य भगवंत के पास में रहनेवाला एवं उनकी आज्ञानुसार वर्तन करनेवाला है वह मुनि पूज्य है।।३।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 153