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विनय - अविनय का फलादेश :
विवती अविणीयस्य, सम्पत्ती विणियस्स अ जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई ||२१|| सं.छा.ः विपत्तिरविनीतस्य, सम्प्राप्तिर्विनीतस्य च। यस्यैतदुभयतो ज्ञातं, शिक्षां सोऽधिगच्छति ॥२१॥
भावार्थ ः अविनीत शिष्य के ज्ञानादि गुण का विनाश होता है और विनीत शिष्य को ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति होती है। जिन्होंने ये दोनों भेद जाने हैं वे मुनि ग्रहण, आसेवन रूप दोनों प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करते हैं कारण कि भाव से उपादेय का ज्ञान होता है।।२१।।
मोक्ष के लिए अनधिकारी :
जे आवि चण्डे मई - इड्डि-गारवे, पिसुणे नरे साहस - -हीणपेसणे । अदिट्ठ-धम्मे विणर अकोविष्ट, असंविभागी न हु तस्स मुक्खो || २२ || सं.छा.ः यश्चापि चण्ड ऋद्धिगौरवमतिः, पिशुनो नरः साहसिको हीनप्रेषणः । अदृष्टधर्मा विनयेऽकोविदः, असंविभागी नैव तस्य मोक्षः ||२२|| भावार्थ ः जो भव्यात्मा चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् चण्डप्रकृति युक्त है, बुद्धि एवं ऋद्धि गारव से युक्त है (ऋद्धिगार में मति है जिसकी) पीठ पीछे निंदक/पिशुन है, अविमृश्यकारी/अकृत्य करने में तत्पर / साहसिक है, गुरु आज्ञा का यथा समय पालन न करनेवाला है, श्रुतादि धर्म से अज्ञात है, (धर्म की प्राप्ति जिसे नहीं हुई) विनय पालन में अनिपुण, (अनजान) है असंविभागी अर्थात् प्राप्त पदार्थ दूसरों को न देकर स्वयं अकेले ही उपभोग कर्ता है, इत्यादि दोषरूप कारणों से क्लिष्ट अध्यवसाय युक्त अधमआत्मा को मोक्ष प्राप्त नहीं होता ॥२२॥
मोक्षाधिकारी :
निद्देसवत्ती पुण जे गुरूणं, सूयत्थ-धम्मा विणयम्मि कोविया । तरितु ते ओहमिणं दुरुत्तरं, खवित्तु क्रम्मं गइमुत्तमं गयं ||२३||त्ति बेमि || सं.छा.ः निर्देशवर्तिनः पुनर्ये गुरूणां श्रुतार्थधर्मा विनये कोविदाः ।
तीर्त्वा ते ओघमेनं दुरुत्तरं, क्षपयित्वा कर्म गतिमुत्तमां गताः ||२३|| ॥ इति ब्रवीमि ॥
भावार्थ : और जो-जो मुनि/शिष्य निरंतर गुर्वाज्ञा में प्रवृत्त हैं, गीतार्थ हैं, विनय धर्म के पालन में निपुण हैं, वे शिष्य / मुनि इस दुस्तर संसार समुद्र को पार करते हैं, सभी कर्मों का क्षयकर उत्तम सिद्धि गति को प्राप्त करते हैं ||२३||
श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते हैं कि तीर्थंकरादि के कहे अनुसार मैं कहता हूँ !
श्रीवैलिक सूत्रम् - 152
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