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धर्म इति कृत्वा परमाग्रशूरो, जितेन्द्रियो यः सहते स पूज्यः ॥८ ॥
भावार्थ : सामनेवाले व्यक्ति के द्वारा कहे जानेवाले कठोर परूष वचन रूपी प्रहार कानों में लगने से मन में दुष्ट विचार उत्पन्न होते हैं। जो महाशूरवीर और जितेन्द्रिय मुनि वचन रूपी प्रहार को, सहन करना मेरा धर्म है ऐसा मानकर, सहन करता है वह पूज्य है।।८।।
अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं । ओहारिणि अप्पियकारिणिं च भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो || ९ || सं.छा.ः अवर्णवादं च पराङ्मुखस्य, प्रत्यक्षतश्च प्रत्यनीकां च भाषाम् । अवधारिणीमप्रियकारिणीं च, भाषां न भाषेत सदा स पूज्यः ||९|| भावार्थ ः जो दूसरों के पीठ पीछे अवर्णवाद (निंदा) न करनेवाला, सामने दुःखद वचन नहीं कहता, निश्चयात्मक भाषा एवं अप्रीति कारिणी भाषा का प्रयोग नहीं करता वह पूज्य है ॥९॥
अलोलुप अनुहार, अमाइ, अपिसुने यावि अदीणवित्ती । नो भावर नो विय भावियप्पा, अकोउहल्ले य सया स पुज्जो || १०॥ सं.छा.: अलोलुपोऽकुहकोऽमायी, अपिशुनश्चाप्यदीनवृत्तिः ।
नो भावयेद् नाऽपि च भावितात्मा, अकौतुकश्च सदा स पूज्यः ॥१०॥ भावार्थ : जो रसलोलुप नहीं है, जो इन्द्रजालादि नहीं करता, कुटिलता रहित है, चुगली
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नहीं करता, अदीन वृत्ति युक्त है, न स्वयं किसी के अशुभ विचारों में निमित्त बनता है, न स्वयं अशुभ विचार करता है, न स्वयं स्व प्रशंसा करता है, न स्वयं की प्रशंसा दूसरों
से करवाता है, और कौतुकादि कोतुहल से निरंतर दूर रहता है। वह मुनि पूज्य है।।१०।। • गुणेहि साहू अगुणेहि साहू, गेण्हाहि साहु-गुण मुंचऽसाहू । वियाणिया अप्पा-मप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ||११|| सं.छा.ः गुणैश्च साधुरगुणैरसाधुः, गृहाण साधुगुणान् मुञ्चासाधुगुणान्। विज्ञापयत्यात्मानमात्मना, यो रागद्वेषयोः समः स पूज्यः ।।११।। भावार्थ : गुणों के कारण साधु एवं अगुण (दुर्गुण) के कारण असाधु होता है अतः साधु Shahaji (साधुता को ग्रहणकर, असाधुता को छोड़ दे। इस प्रकार जो मुनि अपनी आत्मा को समझाता है, एवं राग द्वेष के प्रसंग पर समभाव धारण करता है। वह मुनि पूज्य है || ११ ||
तहेव डहरं व महल्लगं वा, इत्थीं पुमं पव्वइयं गिहिं वा ।
नो हीलर नोऽवि य खिंसरज्जा, थंभं च कोहं च चए स पुज्जो || १२ |
सं.छा.ः तथैव डहरं वा महल्लकं वा, स्त्रियं पुमांसं प्रव्रजितं गृहिणं वा ।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 155