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सुविनीतता का फल :- तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नरनारिओ।
दीसंति सुहमेहता, इड्ढेि पत्ता महायसा ||९|| .सं.छा.ः तथैव सुविनीतात्मानो, लोकेऽस्मिन्नरनार्यः।
दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धिं प्राप्ता महायशसः ।।९।। भावार्थ : लोक में सुविनीत नर-नारी ऋद्धि महायश को प्राप्तकर महान सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं ।।९।। अविनीत आत्मा की देवलोक में दुर्दशा :
तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा य गुज्झगा।
दीसंति दुहमेहंता, आभिओग-मुवट्ठिया ||१०।। सं.छा..तथैवाविनीतात्मानो, देवा यक्षाश्च गुह्यकाः।
दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, आभियोग्यमुपस्थिताः ॥१०॥ भावार्थ : विनयहीन आत्मा को जन्मान्तर में देव योनि मिले तो वैमानिक ज्योतिषी, व्यंतर भवनपति आदि देवों की सेवा, अस्पृश्यता आदि के द्वारा दुःखानुभव होता है। ऐसा भावनयन से दिखायी देता है अर्थात् ज्ञान चक्षु से दिखायी देता है ।।१०।। सुविनीत आत्मा को देवलोक में सुखानुभव :
तहेव सविणीअप्पा, देवा जक्खा अ गुज्झगा।
दीसंति सुहमेहता, इंड्ढि पत्ता महायसा ||११|| सं.छा. तथैव सुविनीतात्मानो, देवा यक्षाश्च गुह्यकाः।
दृश्यन्ते सुखमेधमाना, ऋद्धिं प्राप्ता महायशसः ।।११।। भावार्थ : उसी प्रकार सुविनीत आत्मा भवान्तर में वैमानिक,ज्योतिषी,व्यंतर, भुवनपति आदि देवलोक में इन्द्रादि की विशिष्ट दिव्य ऋद्धि को प्राप्तकर, महायशस्वी होकर श्री अरिहंत भगवंत के कल्याणक आदि के द्वारा महान पुण्योपार्जन करते हुए महानंद, महासुख के भागी होते हैं ।।११।। सद्गुरु विनय एवं विनय का फल :
जे आयरिय-उवज्झायाणं, सुस्सूसा-वयणंकरा।
तेसिं सिक्खा पवड्ढन्ति, जलसित्ता इव पायवा ||१२|| सं.छा.: य आचार्योपाध्याययोः, शुश्रूषावचनकराः।
तेषां शिक्षाः प्रवर्द्धन्ते, जलसिक्ता इव पादपाः ।।१२।। भावार्थ : जो मुनि आचार्य भगवंत, उपाध्याय भगवंत (एवं मुनि भगवंत) की विनयपूर्वक सेवा करता है, आज्ञा पालन करता है, उनकी ग्रहण एवं आसेवन शिक्षा उसी प्रकार
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 149