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सं.छा.ः तथैवाविनीतात्मानः, औपवाह्या हया गजाः।
दृश्यन्ते दुःखमेधयन्तः, आभियोग्यमुपस्थिताः ||५||
भावार्थ : राजा, सेनापति, प्रधान आदि की सवारी के काम में आनेवाले हाथी घोड़े जो-जो अविनीत होते हैं। अड़ीयल होते हैं वे भार वहन करने के द्वारा क्लेश रूपी दुःख को प्राप्त करते हैं ।। ५ ।। (उववज्झाः औपवाह्य सवारी के काम में आना) सुविनीत को सुफल की प्राप्ति :
तहेव सुविणीअप्पा, उववज्झा हया गया । दीसंति सुहमेहंता, इम्टिं पत्ता महायसा ||६|| सं.छा.ः तथैव सुविनीतात्मानः, औपवाह्या हया गजाः। दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धिं प्राप्ता महायशसः ||६| भावार्थ : राजा आदि की सवारी के काम में आनेवाले जो हाथी, घोडे सुविनीत होते हैं। वे. आभूषण, ा, रहने का स्थान, उत्तम आहारादि को प्राप्तकर स्वयं के सद्गुणों से यश, प्रख्याति को प्राप्तकर सुखों का अनुभव करते हैं ||६||
तिर्यंच विनय गुण से सुखानुभव करता है तो मुनि महान स्थान को पाया हुआ है वह विनय गुण के द्वारा महान सुख मोक्ष सुख को प्राप्त करें इसमें क्या कहना ? अविनीत की दुर्दशा :
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'तहेव अविणीअप्पा, लोगंमि नर-नारिओ । दीसंति दुहमेहंता, छाया विगलितेंदिया ||७||
सं.छा.ः तथैवाविनीतात्मानो, लोके नरनार्यः ।
दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, छारा (ताः) विकलेन्द्रिया | ७| भावार्थ : पशुओं के समान जो नर-नारी अविनीत हैं, वे जगत में अनेक प्रकार के दुःखों को भोगते हुए, चाबुक आदि के प्रहार से व्रण, घावयुक्त देहवाले एवं परस्त्री आदि दोषों
के फलरूप में नाक आदि इंद्रियों से विकल देखने में आते हैं ॥ ७ ॥
दण्ड- सत्यय-परिजुण्णा, असब्भअ-वयणेहि य कलुणा विवन्न - छंदा, खुप्पिवासा - परिगया ||८||
सं.छा.ः दण्डशस्त्रपरिजीर्णाः, असभ्यवचनैश्च।
करुणाव्यापन्नच्छन्दसः, क्षुत्पिपासापरिगताः ।।८।।
भावार्थ : अविनीत नर-नारी दंड, शस्त्र, महाकठोर वचनों से दुर्बल हो जाने से करुणा पात्र, दीन, पराधीन, और क्षुधा प्यास से पीड़ित बनकर, अनेक प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं। अविनय के फलरूप में इस भव में अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं एवं उन्हें परभव में नरक निगोदादि के महा दुःख भोगने पड़ते हैं ॥ ८ ॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 148