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भावार्थ : : वृक्ष के मूल से स्कंध उत्पन्न होता है, स्कंध के बाद शाखा की उत्पत्ति, शाखा से छोटी शाखा प्रशाखाएँ निकलती हैं फिर पत्र, पुष्प, फल एवं रस की उत्पत्ति होती है ॥ १ ॥
एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो । जेण कित्तिं सुअं सिग्घं, नीसेसं चाभिगच्छई ||२||
सं.छा.ः एवं धर्मस्य विनयो, मूलं परमस्तस्य मोक्षः ।
येन कीर्तिश्रुतं श्लाघ्यं निःशेषं चाधिगच्छति ।।२।।
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भावार्थ : इस प्रकार धर्म रूपी कल्पवृक्ष का मूल विनय है। वृक्ष सदृश्य उत्तरोत्तर सुख सामग्री, ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के साथ मोक्ष प्राप्ति, यह उत्तम फल के रस रूपी जानना। अतः विनयाचार का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य है । विनय से मुनि कीर्ति, श्रुतज्ञान एवं प्रशंसा योग्य सभी पदार्थों को प्राप्त करता है || २ || अविनीत की दुर्दशा :
जे य चण्डे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सठे। वुझाई से अविणीयप्पा, कटुं सोयगयं जहा ||३||
सं.छा.ः यश्च चण्डो मृगः स्तब्धो, दुर्वादी निकृतिमान् शठः । उह्यतेऽसावविनीतात्मा, काष्ठं स्रोतोगतं यथा ॥३॥
भावार्थ : तीव्र रोष युक्त, अज्ञ, हितोपदेश से रुष्ट होनेवाला, अहंकारी, अप्रियभाषी, मायावी, शठ, (संयम योगों में शिथिल) इत्यादि दोषों के कारण जो मुनि सद्गुरु आदि का विनय नहीं करता, वह अविनीत आत्मा जिस प्रकार नदी आदि के प्रवाह में गिरा हुआ काष्ठ बहता रहता है वैसे संसार प्रवाह में वह प्रवाहित होता है । अर्थात् अविनीतात्मा चारों गति में परिभ्रमण करता रहता है || ३ ||
विणयं पि जो उवाटणं, चोइओ कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमिज्ञंति, दंडेण पडिसेहर ||४|| .सं.छा.ः विनयमपि य उपायेन, चोदितः कुप्यति नरः ।
दिव्यां स श्रयमागच्छन्तीं, दण्डेन प्रतिषेधयति ॥ ४ ॥ भावार्थ ः विनय धर्म के परिपालन हेतु सद्गुरु के द्वारा प्रयत्नपूर्वक मधुर वचनों से
प्रेरित करने पर उन पर कुपित आत्मा, अपने घर में आनेवाली ज्ञान रूपी दिव्य लक्ष्मी दंड प्रहार से लौटा देता है। उसे धक्का देकर घर में आने से रोकता है। घर से निकाल देता है ॥ ४ ॥
तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया।
दीसन्ति दुहमेहंता, आभिओग - मुवट्टिया ॥५॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 147