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खे शोभते विमलेऽभ्रमुक्ते, एवं गणी शोभते भिक्षुमध्ये ।।१५।। भावार्थ : जिस प्रकार कार्तिक पुर्णिमा के दिन बादलों से रहित निर्मल आकाश में नक्षत्र और तारागण से परिवृत्त चंद्रमा शोभायमान है। वैसे साधु समुदाय में गणि सद्गुरु आचार्य भगवंत शोभायमान हैं ।।१५।। महागरा आयरिया महेन्सी, समाहि-जोगे सुय-सील-बुद्धिप्र| सम्पाविउ-कामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्म-कामी ||१६|| : सं.छा.ः महाकरा आचार्या महर्षयः, समाधियोगश्रुतशीलबुद्धिभिः।
सम्प्राप्सुकामोऽनुत्तराणि, आराधयेत्तोषयेद्धर्मकामी ।।१६।। . . भावार्थ : अनुत्तर ज्ञानादि भाव रत्नों की खान समान समाधि, योग, श्रुत, शील, एवं बुद्धि के महान धनी, महर्षि आचार्य भगवंत के पास से सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि प्राप्ति के लिए सुशिष्यों को विनय करने के द्वारा आराधना करनी। एक बार ही नहीं, कर्म निर्जरार्थे । बार-बार विनय करने के द्वारा आचार्य भगवंत को प्रसन्न करना ।।१६।। . उपसंहारः सुच्चाण मेहावि-सुभासियाई, सुस्सूसट आयारिअमप्पमत्तो। आराहईत्ताण गुणे अणेगे, से पावइ सिद्धिमणुतरं।।१७||ति बेमि।। . सं.छा.: श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि, शुश्रूषयेदाचार्यानप्रमत्तः। आराध्य गुणाननेकान्, स प्राप्नोति सिद्धिमनुत्तराम् ।।१७।।
॥ इति ब्रवीमि ॥ भावार्थ : इन सुभाषितों को श्रवणकर मेधावी मुनि, सद्गुरु आचार्य भगवंत की सतत, निरंतर अप्रमत्त भाव से सेवा करें। इस प्रकार पूर्वोक्त गुण युक्त सद्गुरु आचार्यादि की शुश्रूषा करनेवाला मुनि अनेक ज्ञानादि गुणों की आराधनाकर क्रमशः मोक्ष प्राप्त करता है।।१७।। श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते हैं कि तीर्थंकरादिके कहे अनुसार मैं कहता हूँ।
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द्वितीयोद्देशकः मूल की महत्ता :मूलाउ खन्धप्पभवो दुमल्स, खन्धाउ पच्छा समुवेन्ति साहा। साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, तओ से पुष्कं च फलं रसो य ||१|| . सं.छा.: मूलात् स्कन्धप्रभवो द्रुमस्य, स्कन्धात्पश्चात्समुत्पद्यन्ते शाखाः।
शाखाभ्यः प्रशाखा विरोहन्ति पत्राणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं रसश्च ।।१।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 146