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सद्गुरु आचार्य भगवंत की विनयपूर्वक सेवा करें। ज्ञानी शिष्य के लिए यह विधान है, तो सामान्य शिष्य के लिए तो कहना ही क्या? ।।११।। विनय विधि :.जस्सन्तिए धम्मपयाइं सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे। सकारर सिरसा पंजलीओ, काय-निगरा भो मणसा य निच्चं ||१२|| सं.छा.ः यस्यान्तिके धर्मपदानि शिक्षेत, तस्यान्तिके वैनयिकं प्रयुञ्जीत।
___ सत्कारयेच्छिरसा प्राञ्जलिः सन्, कायेन गिरा भो मनसा च नित्यम् ॥१२॥ भावार्थ : जिस सद्गुरु के पास धर्म पदों का शिक्षण ले रहे हैं, उनके समीप विनय धर्म का पालन करें। उनका सत्कार करना, पंचांग प्रणिपात, हाथ जोड़कर मत्थएण वंदामि कहना, मन, वचन, काया से नित्य उनका सत्कार सन्मान करना ।।१२।। लज्जा-दया-संजम-बंभचेरं, कंल्लाण-भागिस्स विसोहि-ठाणं| जे मे गुरु सयय-मणुसासयन्ति, तेऽहं गुरुं सययं पूययामि।।१३।। सं.छा.ः लज्जा दयासंयमो ब्रह्मचर्य, कल्याणभागिनो विशोधिस्थानम्।
ये मां गुरवः सततमनुशासयन्ति, तानहं गुरून सततं पूजयामि ।।१३।। भावार्थ : लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य ये चारों मोक्षाभिलाषी मुनि के लिए विशोधिस्थान है, अतः जो सद्गुरु मुझे इन चारों के लिए सतत् हित शिक्षा देते हैं मैं उन सद्गुरु भगवंत की नित्य पूजा करता हूँ। इस प्रकार शिष्यों को सतत विचार, चिंतन करना चाहिए। उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना यही सद्गुरु की वास्तविक पूजा है।॥१३॥ आचार्य भगवंत की गुण गर्भित स्तुति :जहा निसंते तवणच्चिमाली, पभासई केवल-भारहं तु। एवायरिओ सुय-सील-बुद्धिए, विरायइ सुरमझे व इंदो ||१४||
सं.छा.ः यथा निशान्ते तपनर्चिाली, प्रभासयति केवल-भारतं तु। : एवमाचार्यः श्रुतशीलबुद्ध्या, विराजते सुरमध्य इवेन्द्रः ।।१४।।
भावार्थः जिस प्रकार रात्रि के व्यतीत होने पर दिन में प्रदिप्त होता हुआ सूर्य संपूर्ण भरत क्षेत्र को प्रकाशित करता है, वैसे शुद्ध श्रुत, शील, बुद्धि संपन्न सद्गुरु आचार्य भगवंत जीवादि पदार्थों के संपूर्ण स्वरूप को प्रकाशित करते हैं और जैसे देवताओं के समूह में इन्द्र शोभायमान है, वैसे सद्गुरु आचार्य भगवंत मुनि मंडल में शोभायमान हैं ।।१४।। जहा ससी कोमुई-जोग-जुत्तो, नक्खत्त-तारागण-परिवुडप्पा।
खे सोहई विमले अब्भमुळे, एवं गणी सोहई भिक्खुमझे ||१५|| सं.छा.ः यथा शशी कौमुदीयोगयुक्तः, नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 145