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________________ भावार्थ : संभव है कि अग्नि न जलावे, कुपित आशीविष दंश न दे, हलाहल विष न मारे पर सद्गुरु भगवंत की अवहेलना से मोक्ष कभी नहीं होगा ।।७।। जो पव्वयं सिरसा भेत्तु-मिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा। जो वा दए सत्ति-अग्गे पहार, एसोवमासायणया गुरूणं ||४|| सं.छा.ः यः पर्वतं शिरसा भेत्तुमिच्छेत्, सुप्तं वा सिंह प्रतिबोधयेत्। यो वा ददाति शक्त्यग्रे प्रहारं, एषोपमाऽऽशातनया गुरूणाम् ।।८।। भावार्थ : कोई व्यक्ति मस्तक से पर्वत छेदन करना चाहे, या सुप्त सिंह को जगाये, या शक्ति नामक शस्त्र पर हाथ से प्रहार करता है। ये तीनों जैसे अलाभकारी हैं वैसे सद्गुरु की आशातना अलाभकारी है ।।८।। सिया हु सीसेण गिरि पि भिन्दे, सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे। सिया न भिन्दिज्ज व सत्ति-अन्गं, न या वि मोक्खो गुरु-हीलणास||९|| सं.छा.ः स्याद्वा शीर्षेण गिरिमपि भिन्द्यात्, स्याद्वा सिंहः कुपितो न भक्षयेत्। स्यान्न भिन्द्याद्वा शक्त्यग्रं, न चापि मोक्षो गुरुहीलनया ।।९।। भावार्थः संभव है कि प्रभावक शक्ति के कारण मस्तक से पर्वत का भेदन हो जाय, मंत्रादि के सामर्थ्य से कुपित सिंह भक्षण न करे, शक्ति नामक शस्त्र हाथ पर लेश भी घाव न करे, पर गुरु की आशातना से मोक्ष कभी नहीं होगा ।।९।। सद्गुरु की प्रसन्नता / कृपा आवश्यक :आयरिय-पाया पुण अप्पसल्ला, अबोहि-आसायण नदिय मुक्खो। तम्हा अणाबाह-सुहाभिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमेज्जा ||१00 . सं.छा. आचार्यपादाः पुनरप्रसन्नाः, अबोध्याशातनया नास्ति मोक्षः। तस्मादनाबाधसुखाभिकाङ्क्षी, गुरुप्रसादाभिमुखो रमेत ।।१०।। भावार्थ ः सद्गुरु की अप्रसन्नता से मिथ्यात्व की प्राप्ति, सद्गुरु की आशातना से मोक्ष का अभाव है अगर ऐसा है तो अनाबाध, परिपूर्ण, शाश्वत सुखाभिलाषी मुनियों को जिस प्रकार सद्गुरु प्रसन्न रहे सद्गुरु की कृपा प्राप्त हो उस अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए ।।१०।। जहाहि-अग्गी जलणं नमसे, नाणाहुइ-मन्त-पया-भिन्सित्तं। एवायरियं उवचिठ्ठएज्जा, अणंत-नाणोवगओ वि संतो ||११|| सं.छा.ः यथाऽऽहिताग्निवलनं नमस्यति, नानाहुतिमन्त्रपदाभिषिक्तम्। ___ एवमाचार्यमुपतिष्ठेत्, अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥११॥ भावार्थ : जिस प्रकार आहिताग्नि ब्राह्मण/होम हवन करनेवाला पंडिन मंत्रपदों से संस्कारित अग्नि को नमस्कार करता है। उसी प्रकार शिष्य अनंत ज्ञानवान होते हुए भी श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 144
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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