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सं.छा.: यश्चापि नागं डहर इति ज्ञात्वा, आशातयति सोऽहिताय भवति।
. एवमाचार्यमपि हीलयन्, निर्गच्छति जातिपन्थानं तु मन्दः ।।४।। भावार्थ :जैसे कोई मुर्ख अज्ञ आत्मा सर्प को छोटा समझकर उसकी कदर्थना करता है, तो वह सर्प उसके द्रव्य प्राण के नाश का कारण बनता है, वैसे शास्त्रोक्त किसी कारण से अल्पवयस्क, अल्प प्रज्ञ को आचार्य पद दिया गया हो एवं उनकी हिलना करनेवाला आत्मा 'जाइ पह' अर्थात् दो इन्द्रियादि गतियों में अधिक काल के जन्म मरण के मार्ग को प्राप्त करता है। अधिक काल तक संसार में परिभ्रमण रूपी अहित को प्राप्त करता है।॥४॥ आसीविसो या वि परं सुरुठ्ठो, किं जीवनासाउ परं न कुज्जा। आयरियपाया पुण अप्पसला, अबोहि-आसायण नत्थि मुक्खो।।५।। सं.छा.: आशीविषश्चापि परंसुरुष्टः, किं जीवितनाशात्परं न कुर्यात्?।
__ आचार्यपादाः पुनरप्रसन्नाः, अबोध्याशातनया नास्ति मोक्षः ।।५।। भावार्थ : आशीविष सर्प अत्यन्त क्रोधित बनने पर जीवितव्य/द्रव्य प्राणों के नाश से अधिक किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं कर सकता। पर सद्गुरु आचार्य भगवंत, उनकी हिलना से, अप्रसन्न होने से शिष्य के लिए वे मिथ्यात्व के कारण रूप होते हैं। क्योंकि सद्गुरु आचार्य की अवहेलना-आशातना करने से मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है। इससे अबोधि एवं आशातना करनेवालों का मोक्ष नहीं होता।।५।। जो पावगं जलिअ-मवकमिज्जा, आसीविसं वा वि हु कोवइज्जा। जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमासायणया गुरुणं ||६|| सं.छा.ः यः पावकंज्वलितमवक्रामेद्, आशीविषं वाऽपि हि कोपयेत्।
यो वा विषं खादति जीवितार्थी, एषोपमाशातनया गुरूणाम् ।।६।। भावार्थ : जिस प्रकार कोई व्यक्ति जीने के लिए जल रही अग्नि में खड़ा रहता है या आशीविष सर्प को क्रोधित करता है या कोई विष का आहार करता है तो वह जीवित नहीं रह सकता, वैसे ही। ये उपमाएँ धर्माचरण हेतु गुरु की अवहेलना करनेवाले के लिए समान रूप से हैं।
__ अग्नि, सर्प एवं विष जीवितव्य के स्थान पर मरण के कारणभूत हैं। वैसे ही सद्गुरु की आशातना पूर्वक की गयी मोक्षसाधना संसार वृद्धि का कारण है ।।६।।
सिया हु से पावय नो डहेज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे। - 'सिया विसं हालहलं न मारे, न यावि मोक्खो गुरु-हीलणार ||७|| ... सं.छा.ः स्यात्खल्वसौ पावको नो दहेत्, आशीविषो वा कुपितो न भक्षयेत्।
. स्याद्विषं हालाहलं न मारयेत्, न चापि मोक्षो गुरुहीलनातः ।।७।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 143