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प्रथमोद्देशक: अविनयी को फल प्राप्ति :धंभा व कोहा व म(मा)यप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे। सो चेव उ तस्स अभूईभावो, फलं च कीअस्स वहाय होई ||१|| सं.छा.ः स्तम्भाद्वा क्रोधाद्वा मायाप्रमादाद्, गुरोःसकाशे विनयं न शिक्षते।
स एव तु तस्याभूतिभावः, फलमिव कीचकस्य वधाय भवति ॥१॥ भावार्थ : जो मुनि गर्व, क्रोध, माया एवं प्रमाद के कारण सद्गुरु भगवंत से विनय धर्म की शिक्षा ग्रहण नहीं करता, वही (विनय की अशिक्षा) उसके लिए विनाश का कारण बनती है। जैसे कीचक को फल आने पर कीचक (बांस) का नाश होता है। अविनय रूपी फल प्राप्ति से उसके भाव प्राणों का नाश हो जाता है ।।१।। . . जे आवि मंदित्ति, गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पन्सुअत्ति नच्चा। हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ।।२।। सं.छा. ये चापि मन्द इति गुरुं विदित्वा, डहरोऽयमल्पश्रुत इति ज्ञात्वा। ..
हीलयन्ति मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमानाः, कुर्वन्त्याशातनां ते गुरूणाम् ।।२।। भावार्थ : जो मुनि, सद्गुरु को ये अल्पप्रज्ञ (मंदबुद्धि) वाले हैं, अल्पवयवाले हैं, अल्पश्रुतधर हैं, ऐसा मानकर उसकी हीलना/तिरस्कार करता है, वह मनि मिथ्यात्वको प्राप्त करता हुआ, गुरु भगवंतों की आशातना करनेवाला होता है।।२।। अल्पज्ञ सद्गुरु का विनय न करने का फल :पगईह मंदा वि भवंति एगे, डहरा वि अ जे सुअबुद्धोववेआ। आयारमंता गुणसुष्ठिअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भास कुज्जा ||३|| सं.छा.ः प्रकृत्या मन्दा अपि भवन्त्येके, डहरा अपि च ये श्रुतबुद्ध्योपपेताः।
आचारवन्तो गुणसुस्थितात्मानो, ये हीलिताः शिखीव भस्मसात्कुर्युः।।३।। भावार्थ : वयोवृद्ध आचार्य भगवंत भी कभी कोई प्रकृति से अल्पप्रज्ञ होते हैं एवं कोई अल्पवय युक्त होने पर भी श्रुत एवं बुद्धि से प्रज्ञ होते हैं।
आचारवंत एवं गुण में सुस्थित आत्मा आचार्य भगवंत जो आयु में अल्प हो, श्रत में अल्प हो, तो भी उनकी अवज्ञा करनेवाले आत्मा के गुणों के समुह का नाश हो जाता है। जैसे अग्नि में पदार्थ भस्म होता है। अर्थात् सद्गुरु की आशातना करनेवाले के गुण समूह का नाश अग्नि में पदार्थ के नाश सम हो जाता है।।३।। दृष्टांत पूर्वक अविनय का फल :जे आवि नागं डहरं ति नच्चा, आसायए से अहिआय होड़। एवायरिअं पि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो ||४|| .
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 142