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बढ़ती है, जैसे जल से सिंचित वृक्ष ||१२||
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, सिप्पा नेउणियाणि य। गिहिणो उपभोगट्ठा, इह लोगस्स कारणा ||१३|| जेण बन्धं वहं घोरं, परिआवं च दारुणं । सिक्खमाणा नियच्छंति, जुत्ता ते ललिइंदिआ ||१४|| तेऽवि तं गुरु पूयंति, तस्स सिप्परस कारणा । सठारेंति नमंसंति, तुट्ठा निद्देस - वत्तिणो || १५|| किं पुण जे सुअग्गाही, अनंत- हियकामए । आयरिया जंवर भिक्खू, तम्हा तं नाईवत्तर || १६ ||
सं.छा.ः आत्मार्थं परार्थं वा, शिल्पानि नैपुण्यानि च।
गृहिण उपभोगार्थं, इहलोकस्य कारणम् ॥१३॥ नबन्धं वधं घोरं परितापं च दारुणम् । शिक्षमाणां नियच्छन्ति, युक्तास्ते ललितेन्द्रियाः ।।१४। तेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति तस्य शिल्पस्य कारणात्। सत्कारयन्ति नमस्यन्ति, तुष्टा निर्देशवर्त्तिनः ।। १५ ।। किं पुनर्यः श्रुतग्राही, अनन्तहितकामुकः । आचार्या यद्वदन्ति भिक्षुः, तस्मात्तन्नातिवर्त्तेत ।।१६।। भावार्थ: जो गृहस्थ अपने और पराये के लिए शिल्पकला आदि में निपुणता, प्रवीणता, चित्रकला आदि में कौशल्यता प्राप्त करने हेतु कलाचार्य के द्वारा गुरु आवश्यकतानुसार दारुण वध, बन्धन परिताप, कष्ट को गर्भ श्रीमंत राजकुमारादि भी सहन करते हैं एवं वे कलाचार्य गुरु की सेवा पूजा करते हैं । उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। (भौतिक कलाओं की प्राप्ति हेतु कष्ट सहन करते हुए भी आनंदपूर्वक गुरु सेवा करते हैं। तब वे कला प्राप्त कर सकते हैं।)
तो मुनि भगवंत जो मोक्ष सुख की इच्छावाले एवं श्रुतज्ञान को प्राप्त करने हेतु उत्कट इच्छावाले हैं। उनको आचार्यादि की सेवा पूजा एवं उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिए । सद्गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए ।।१३-१६।।
नीअं सेज्जं गईं ठाणं, नीयं च आसणाणि य
नीयं च पाट वंदिज्जा, नीयं कुज्जा य अंजलिं ॥ १७ ॥
सं.छा.ः नीचां शय्यां गतिं स्थानं, नीचानि चासनानि च।
नीचं च पादौ वन्देत, नीचं कुर्याच्चाञ्जलिम् ||१७|| भावार्थ : शिष्य गुरु से स्वयं की शय्या नीचे करें, उनके समीप सटकर, अति दूर गति श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 150