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मा कुले गन्धनौ भूव, संयम निभृतश्चर ।।८।। शब्दार्थ - (अहं च) मैं (भोगरायस्स) उग्रसेन राजा की पुत्री हूँ (च) और (i) तू (अंधगवण्हिणो) समुद्रविजय राजा का पुत्र (असि) है (कुले) अपने कुलों में (गंधण) हम दोनों को गन्धन जाति के सर्प समान (मा होमो) नहीं होना चाहिए (निहुओ) चित्त को स्थिर करके (संजमं) चारित्र को (चर) आचरण कर।
- भो रहनेमिन्! मैं राजा उग्रसेन की पुत्री हूं और तुम राजा समुद्रविजयजी के पुत्र हो। अपना विशाल और निष्कलंक कुल है। अतएव अपने को विषय भोग रूपी वान्त रस का पान करके गन्धन जाति के सर्यों के समान नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम अपने चित्त को स्थिर रखकर निर्दोष चारित्र का पालन करो।
जड़ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ।
वायाविद्धव्व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि ||९|| सं.छा.: यदि त्वं करिष्यसि भावं, या या द्रक्ष्यसि नारीः।
___ वाताविद्ध इव हडः, अस्थितात्मा भविष्यसि ।।९।। शब्दार्थ - (जइ) यदि (तं) तुम (जा-जा) जिन-जिन (नारिओ) स्त्रियों को (दिच्छसि) देखोगे, और उनमें (भाव) रागभाव को (काहिसि) पैदा करोगे, तो (वाय विद्ध) वायु से प्रेरित (हडो व्व) हड़ नामक वनस्पति के समान (अट्ठिअप्पा) तुम्हारी आत्मा चलविचल (भविस्ससि) होयगी। .
___-रहनेमिन्! जो तुम अनेक स्त्रियों को देखकर उनमें आसक्त होंगे तो वायु से • प्रेरित हड़ नामक वनस्पति की तरह तुम्हारी आत्मा डावाँडोल रहेगी। अर्थात् जिस
प्रकार हड़ नामक वनस्पति हवा के लगने से इधर-उधर भ्रमण करती है, उसी प्रकार • तुम्हारी आत्मा विषयरूपी वायु से प्रेरित होकर संसार में भ्रमण करेगी। ... तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाइ सुभासियं| - अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ||१०|| .सं.छा.: तस्याः स वचनं श्रुत्वा, संयतायाः सुभाषितं। - अङ्कुशेन यथा नागो, धर्मे सम्प्रतिपादितः ॥१०॥ - शब्दार्थ - (सो) वह रहनेमि (संजयाइ) साध्वी (तीसे) राजिमति के (सुभासियं) उत्तम
(वयणं) वचनों (को सोच्चा) सुनकर (जहा) जैसे (नागो) हाथी (अंकुसेण) अंकुश से ठिकाने आता है, वैसे ही (धम्मे) संयम-धर्म में (संपडिवाइओ) स्थिर हो गया। _ - साध्वी राजिमति के उत्तम वचनों को सुनकर, अंकुश से जैसे हाथी ठिकाने आता है वैसे ही रहनेमि संयम-धर्म में स्थिर हो गया।
रहनेमि ने राजिमति के उपदेश से भगवान् नेमनाथ स्वामी के पास आलोचना लेकर निर्दोष चारित्र पालन करना शुरू किया, जिसके प्रभाव से ज्ञानावरणीय आदि
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 11