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________________ रहनेमि ने कहा-भो सुलोचने! भला यह वान्त वस्तु कैसे पी जाय? राजिमति ने कहा कि-यदि तुम वान्त वस्तु का पीना ठीक नहीं समझते तो भला भगवान् नेमिनाथस्वामी द्वारा वमन किये हुए मेरे शरीर के उपभोग की वांछा क्यों करते हो? इस प्रकार की दुष्ट अभिलाषा करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? अतएव धिग(र)त्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ||७|| सं.छा. धिगस्तु तेऽयशःकामिन्, यस्त्वं जीवितकारणात्। वान्तमिच्छसि आपातुं, श्रेयस्ते मरणं भवेत् ।।७।। शब्दार्थ - (अजसोकामी) अपयश की इच्छा रखने वाले हे रहनेमिन्! (ते) तेरे पुरुषपन् को (धिरत्थु) धिक्कार हो (जो) जो (तं) तुं (जीवियकारणा) क्षणभंगुर जीवन के लिए (वंतं) वमन किये हुए पदार्थको पीने की (इच्छसि) इच्छा करता है, इससे (ते) तेरे को . (मरणं) मरना (सेयं) अच्छा (भवे) होगा। - हे रहनेमि! तूं वान्तभोगों को भोगने की वांछा रखता है इससे तेरे को : धिक्कार है, अतएव तेरे को मर जाना अच्छा है, लेकिन अपयश से तुझे जीना अच्छा नहीं है। कहा भी है कि 'वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणा, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम्' उत्तम कर्म करके मर जाना अच्छा है, परन्तु शील रहित पुरुष का जीना ठीक नहीं है। क्योंकिशीलरहित जीवन से पग-पग पर दुःख और निन्दा का पात्र बनना पड़ता है। . ___ राजिमति के उक्त वचनों से बोध पाकर रहनेमि ने भगवान् श्रीनेमिनाथस्वामी के पास दीक्षा ले ली। रहनेमि के दीक्षित होने के बाद राजिमति ने भी भगवान् के पास दीक्षा ली। एक बार रहनेमि द्वारिका नगरी से गोचरी लेकर भगवान के पास जा रहा था, लेकिन रास्ते में बारिश का उपद्रव देखकर वह रेवताचल की किसी गुफा में बैठ गयाजो रास्ते के नजदीक थी। भाग्यवश राजिमति.उसी अवसर में भगवान् नेमिनाथ स्वामी को वन्दनकर वापिस आ रही थीं, वह भी बारिश पड़ने के कारण उसी गुफा में आयी, जहाँ की रहनेमि ठहरा हुआ था। रास्ते में बारिश से भीग जाने से साध्वी राजिमति ने अपने शरीर के सभी कपड़े गुफा में सुखा दिये। रहनेमि राजिमति के अंग प्रत्यंगों को देखकर कामातुर हुआ और लज्जा को छोड़ राजिमति से भोग करने की प्रार्थना करने लगा। राजिमति ने अपने अंगों को ढककर शिक्षा देते हुए कहा कि - अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ||४|| सं.छा.ः अहं च भोगराजस्य, त्वं चासि अन्धकवृष्णेः। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 10
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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