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सुखी होने की इच्छा है तो आतापना' लो, सुकुमारता' को छोड़ो, विषयवासनाओं को चित्त से हटा दो, वैर, विरोध और प्रेमराग को जलांजली दो। यदि ऐसा करोगे तो अवश्य दुःखों का अन्त होगा और अनन्त सुख मोक्ष मिलेगा। व्रत भंग से मरना अच्छा।
पक्खंदे जलियं जोइं, धमकेउं दरासयं।
नेच्छंति वंतयं भो, कुले जाया अगंधणे ||६|| . सं.छा. प्रस्कन्दन्ति ज्वलितं ज्योतिषं, धूमकेतुं दुरासदम्।
नेच्छन्ति वान्तं भोक्तुं, कुले जाता अगन्धने ।।६।। शब्दार्थ - (अगंधणे) अगन्धन नामक (कुले) कुल में (जाया) उत्पन्न हुए सर्प (दुरासयं) मुश्किल से भी सहन न हो सके ऐसी (जलियं) जलती हुई (धूमकेउ) धुआँ वाली (जोइं) अग्नि का (पक्खंदे) आश्रय लेते हैं, परन्तु (वंतयं) उगले हुए विष को (भोत्तुं) पीने की (नेच्छंति) इच्छा नहीं करते हैं।
_ - सर्पो की दो जाति है - गन्धन और अगन्धन। गन्धन जाति के सर्प मंत्र, जड़ी, बूटी आदि से खींचे जाने पर खुद दंश मारे हुए स्थान से वान्त-विष को चूस लेते हैं और अगन्धन जाति के सर्प सेंकड़ों मंत्र आदि प्रयोगों से आकृष्ट होने पर भी खुद दंश लगाये हुए स्थान से वान्त-विष को फिर चूस लेना ठीक न समझकर, अग्नि में प्रवेश करना उत्तम समझते हैं।
इस दृष्टान्त से साधुओं को सोचना चाहिए कि- विवेक-विकल तिर्यंच विशेष सर्प भी जब अभिमान मात्र से अग्नि में जल मरना पसन्द करते हैं, परन्तु वमन किये हुए विष को पीना ठीक नहीं समझते। इसी तरह जिनप्रवचन के रहस्यों को जाननेवाले साधुओं से जिनका आखिरी परिणाम ठीक नहीं ऐसे अनन्त बार भोगकर वमन किये हुए भोग किस प्रकार सेवन किये जायें? रहनेमि के प्रति राजिमति का उपदेश - ... बाईंसवें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथ स्वामी ने राज्य आदि समस्त परिभोगों का . त्याग करके दीक्षा ले ली। तब रहनेमि ने राजिमति की मधुरसंलापन, योग्यवस्तु प्रदान
आदि से परिचर्या करना शुरु किया। इस गर्न से कि यदि मैं राजिमति को हर तरह से प्रसन्न रक्खूगा तो इससे मेरी भोगाभिलाषा पूर्ण होगी। राजिमति विषय विरक्त थी, उसके हृदय भवन में निरन्तर वैराग्य भावना निवास करती थी।
राजिमति को रहनेमि के दुष्ट अध्यवसाय का पता लग गया, उसने रहनेमि को समझाने की इच्छा से एक दिन शिखरिणी का पान किया। उसी अवसर पर रहनेमि राजिमति के साथ विषयालाप करने के लिए आया। राजिमति ने तत्काल मींडल क प्रयोग से वमन करके रहनेमि को कहा कि - इस वान्त शिखरिणी को तुम पी जाओ, १ अत्यंत गर्म शिला या रेती में शयन करना, २ विविध तपस्याओं से शरीर की कोमलता को हटा देना।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 9