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________________ संसार में अपरिमित धनराशी मिलने पर भी अग्नि, जल और स्त्री का त्याग नहीं हो सकता; अतएव तीनों चीजों को छोड़नेवाला धनहीन पुरुष भी त्यागी ही है। मन कैसे मारे ? . समाइ पेहाइ परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरइ बहिद्धा । न सा महं नो वि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज्ज रागं || ४ || सं.छा.ः समया प्रेक्षया परिव्रजतः स्यान्मनो निःसरति बहिर्धा । " न सा मम नोऽप्यमपि तस्याः, इत्येव ततो व्यपनयेद्रागम् ॥४॥ शब्दार्थ - (समाइ) स्व पर को समान देखनेवाली (पेहाइ) दृष्टि से (परिव्वयंतो) संयम मार्ग में गमन करते हुए साधु का (मणो) मन (सिया) कदाचित् (बहिद्धा) संयमरूप घर से बाहर (निस्सरइ) निकले तो (सा) वह स्त्री (महं न ) मेरी नहीं है (अहं पि) मैं भी (तीसे) उस स्त्री का (नो वि) नहीं हूँ ( इच्चेव) इस प्रकार (ताओ) उन स्त्रियों के ऊपर से (राग) प्रेमभाव को (विणइज्ज) दूर कर देवे । - अपनी और दूसरों की आत्मा को समान देखनेवाली दृष्टि से संयमधर्म का पालन करनेवाले साधु का मन, पूर्व भुक्त भोगों का स्मरण हो आने पर यदि ' संयमरूपी घर से बाहर निकले तो 'वह स्त्री मेरी नहीं है और मैं उस स्त्री का नहीं हूँ' इत्यादि विचार करके स्त्री आदि मोहक वस्तुओं पर से अपने प्रेम-राग को हटा लेना चाहिए। सुख कैसे मिले? आयावयाही चय सोगमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणइ (ए) ज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराष्ट ||५|| सं.छा.ः आतापय त्यज सौकुमार्यं, कामान् क्राम क्रान्तमेव दुःखम् । छिन्द्धि द्वेषं व्यपनय रागं, एवं, सुखी भविष्यसि सम्पराये ॥५॥ शब्दार्थ - (आयावयाही) आतापना ले (सोगमल्लं) सुकुमारपने को (चय) छोड़ (कामे) विषय वासना को (कमाही ) उल्लंघनकर (खु) निश्चय से (दुक्खं) दुःख का (कमियं) नाश हुआ समझ (दोस) द्वेष विकार को (छिंदाहि) नाशकर (राग) प्रेमराग को (विणएज्ज) दूरकर (एवं) इस प्रकार से (संपराए ) संसार में (सुही) सुखी (होहिसि) होयगा । - भगवान् फरमाते हैं कि - साधुओं! यदि तुम्हें संसार के दुःखों से छूटकर श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 8
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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