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पापकर्मों का नाशकर केवल ज्ञान प्राप्त किया, अन्त में वह अनन्त सुखराशि में लीन हुआ।
एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा।
'विणिअटुंति भोगेन्सु, जहा से पुरिसुत्तमो, ||११||त्ति बेमि।। सं.छा.: एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः, पण्डिताः प्रविचक्षणाः।
विनिवर्तन्ते भोगेभ्यो, यथाऽसौ पुरुषोत्तमः ।।इति ब्रवीमि।।११।। शब्दार्थ - (एवं) पूर्वोक्त रीति से (संबुद्धा) बुद्धिमान् (पंडिया) वांतभोगो के सेवन से उत्पन्न दोषों को जाननेवाले (पवियक्खणा) पापकर्म से डरनेवाले पुरुष (करंति) आचरण करते हैं, और (भोगेसु) वान्त भोगों से (विणियति) अलग होते हैं (जहा) जैसे (से) वह (पुरिसोत्तमो) पुरुषो में उत्तम रहनेमि वान्तभोगों से अलग हुआ। (त्ति बेमि) ऐसा मैं मेरी बुद्धि से नहीं कहता हूँ, किन्तु महावीर स्वामी आदि के कथनानुसार कहता
___- जिस प्रकार पुरुषोत्तम रहनेमि ने अपनी आत्मा को वान्तभोगों से हटाकर संयम-धर्म में स्थापित किया और निर्वाणपद को प्राप्त किया उसी प्रकार जो साधु विषयभोगों की तरफ गये हए चित्त को पीछे खींचकर संयम-धर्म में स्थिर करेंगे, तो: उनको भी रहनेमि के समान परमपद प्राप्त होगा।
आशंका - अपने भाई की स्त्री के ऊपर विषयाभिलाषा से सराग दृष्टि रखनेवाले रहनेमि को सूत्रकार ने पुरुषोत्तम क्यों कहा? ।
__ इसका समाधान टीकाकार यों करते हैं कि-कर्मों की विचित्रता से रहनेमि को विषयाभिलाषा हुई परन्तु उसने दुष्ट पुरुषों के समान इच्छानुसार विषय भोग सेवन नहीं किया। प्रत्युत विषयाभिलाषा को रोककर रहनेमि ने अपनी आत्मा को संयम, धर्म में स्थिर की-इसीसे सूत्रकार ने रहनेमि को पुरुषोत्तम कहा है।
शय्यंभवाचार्य अपने पुत्र-शिष्य मनक को कहते हैं कि हे मनक! ऐसा मैं अपनी बुद्धि से नहीं कहता, किन्तु तीर्थंकर गणधर आदि के उपदेश से कहता हूँ।
।। इति श्रामण्यपूर्वकमध्ययनं द्वितीयं समाप्तम् ।।
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"महत्योऽपि हि किं वात्या कम्पयन्ति कुलाचलान्' महावायु भी क्या पर्वतों को कम्पायमान कर सकता है?
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 12