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________________ अल्लीण-गुतो निसिप्ट, सगासे गुरुणो मुर्णी ॥४५|| न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिठ्ठओ। न य ऊरूं समासिज्ज, चिट्ठिज्जा गुरुणंतिए ||४६|| सं.छा.: हस्तं पादं च कायंच, प्रणिधाय जितेन्द्रियः । आलीनगुतो निषीदेत्, सकाशे च गुरोर्मुनिः ।।४५॥ न पक्षतो न पुरतो, नैव कृत्यानां पृष्ठतः । न चोरुसमाश्रित्य,तिष्ठेद गरूणामन्तिके ॥४६।। भावार्थ : जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर एवं शरीर को संयमितकर (न अति दूर, न अति निकटं, आलीन, मन वाणी से संयत गुप्त) आलीन गुप्त होकर उपयोग पूर्वक गुरु के पास बैठे ।।४५।। गुरु के बराबर, आगे, पीछे न बैठे। गुरु के सामने जंघा परजंघा चढाकर पैर पर पैर चढाकर, न बैठे ।।४६।। (गुरु के सामने साढ़े तीन हाथ दूर मर्यादानुसार बैठना) भाषा के प्रयोग में साध्वाचार पालन : अपुच्छिओं न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिठिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जप्ट ||४७|| · सं.छा.: अपृष्टो नैव भाषेत, भाषमाणस्य चान्तरा। पृष्ठिमांसं न खादेच्च, मायामृषां (मृषावाचं) विवर्जयेत् ॥४७॥ भावार्थ : गुरु आदि के बिना पूछे न बोले, बीच में न बोले, गुरु आदि के पीछे उनके दोषों का कथन न करें, माया मृषावाद का त्याग करें ।।४७।। ... अप्पत्ति जेण सिआ, आसु कुप्पिज्ज वा पटो। सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहिअगामिणिं ।।४।। सं.छा.: अप्रीतिकं येन स्याद, आशु कुप्येच्च वा परः। के सर्वशस्तां न भाषेत, भाषामहितगामिनीम् ॥४८।। . भावार्थ : अप्रीति उत्पादक क्रोधोत्पादक स्व पर अहितकारी एवंद्वय लोकविरुद्ध भाषा न बोलें ॥४८॥ दिटुं मिअं असंदिद्धं, पडिपल्लं विअं जि अयंपिर-मणुविग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥४९|| सं.छा.ः दृष्टां मितां असन्दिग्धां, प्रतिपूर्णा व्यक्तां जिताम्। अनल्पनशीलामनुद्विग्नां, भाषां निसृजेदात्मवान् ।।४९।। भावार्थः आत्मार्थी मुनि दृष्टार्थ विषय, स्वयं ने देखे हुए पदार्थ संबंधी मित, शंका रहित, प्रतिपूर्ण, प्रकट, परिचित, वाचलता रहित (ऊँचे आवाज से नहीं) अनुद्विग्न, श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 135
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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