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________________ परमिज्जा तव-संजमंमि ||४१|| सं.छा. रत्नाधिकेषु विनयं प्रयुञ्जीत, ध्रुवशीलतां सततं न हापयेत्। कूर्म इवालीनप्रलीनगुप्तः, पराक्रमेत तपः संयमे ॥४१।। भावार्थ : मुनि, आचार्य, उपाध्याय,व्रतादि पर्याय में ज्येष्ठ साधुओं का अभ्युत्थानादिक रूप से विनय करें, ध्रुवशीलता (अठारह हजार शीलांगरथ में हानि का न होना) में स्खलना न होने दे, कुर्म की तरह स्व अंगोपांगों को कायचेष्टा निरोध रूपी आलीन, गुप्तिपूर्वक तप एवं संयम में प्रवृत्त बनें ।।१।। निदं च न बहु मल्लिज्जा, सप्पहासं विवज्जए। मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायंमि रओ सया ||४२।। सं.छा. निद्रां च न बहु मन्येत, सपहासं विवर्जयेत्। मिथःकथासु न रमेत, स्वाध्याये रतः सदा ।।४२।। । भावार्थ : मुनि निद्रा को बहुमान न दे, किसी की हंसी-मजाक न करें या अट्टहास न . करें, मैथुन की कथा में रमण न करें अथवा मुनि आपस में विकथा न करें, परंतु निरंतर स्वाध्याय में आसक्त रहे। स्वाध्याय ध्यान में रमण करें ॥४२।। जोगं च समणधम्ममि, मुंजे अणलसो धुवं।. जुत्तो अ समणधम्ममि, अट्ठ लहइ अणुत्तरं ।।४३।। सं.छा.ः योगं च श्रमणधर्मे, युञ्जीतानलसो ध्रुवम्। युक्तश्च श्रमणधर्मे, अर्थ लभतेऽनुत्तरम् ।।४३।। भावार्थ : मुनि अप्रमत्तता पूर्वक स्वयं के तीनों योगों को श्रमण धर्म में नियोजित करें। क्योंकि दस प्रकार के श्रमणधर्म के पालन से मुनि अनुत्तर-अर्थ जो केवल ज्ञान स्वरूप है। उसे प्राप्त करता है।।४३।। इहलोग-पारत-हिअं, जेणं गच्छई सुग्गई। बहुस्सुअं पज्जुवासिज्जा, पुच्छिज्जत्थ विणिच्छयं ॥४४|| सं.छा.ः इहलोक-परत्रहितं, येन गच्छति सुगतिम्। बहुश्रुतं पर्युपासीत, पृच्छेदर्थविनिश्चयम् ।।४४॥ भावार्थ : जिस श्रमण धर्म के पालन द्वारा इहलोक एवं परलोक का हित होता है। जिस से सुगति में जाया जाता है। उस धर्म के पालन में आवश्यक ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए बहुश्रुत, आगमज्ञ, गीतार्थ, आचार्य भगवंत की मुनि सेवा करें और अर्थ के विनिश्चय के लिए प्रश्न पूछे ॥४४॥ सद्गुरु के पास बैठने की विधि : हत्थं पायं च कायं च, पणिहाय जिइंदिए। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 134
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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