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वमेच्चतुरो दोषान्, इच्छंश्च हितमात्मनः ।।३७।। भावार्थ : क्रोध, मान, माया एवं लोभ ये चारों पापवर्द्धक भववर्द्धक हैं। मुनि अपना हित चाहनेवाला है। अतः इन चार दोषों को छोड़े। कषाय सेवन न करें ।।३७।। कषाय से होनेवाला अलाभ :
कोहो पीइं पणासेड़, माणो विणय-नासणो।
माया मित्ताणि नासेई, लोभो सव्व-विणासणो ||३८|| सं.छा. क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः।
माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वविनाशनः ।।३८॥ भावार्थ : क्रोध प्रीति नाशक, मान विनय नाशक, माया मित्रता नाशक एवं लोभ सर्व विनाशक है।।३८॥ कषाय निरोध हेतु मार्गदर्शन :
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे।
मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ||३९|| सं.छा.: उपशमेन हन्यात् क्रोधं, मानं मार्दवतो जयेत्।
मायां चार्जवभावेन, लोभ सन्तोषतो जयेत् ।।३९।। भावार्थ : उपशम भाव से क्रोध का नाश करें, मृदुता/कोमलता/नम्रता से मान का नाश करें, ऋजुभाव/सरलता से माया का नाश करें एवं संतोष/निर्लोभता/निःस्पृहता से लोभ : का विनाश करें ॥३९।। . कषायों के कार्य :. कोहो अ माणो अ अणिग्गहीआ,
- माया अ लोभो अ पवड्ढमाणा। . . चत्तारि एए कसिणा कसाया,
. सिंचन्ति मूलाई पुणब्भवस्स ||४०॥ सं.छा.ः क्रोधश्च मानश्चानिगृहीतौ, माया च लोभश्च प्रवर्धमानौ। . . चत्वार एते कृत्स्नाः कषायाः, सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥४०॥ भावार्थ : अनिगृहीत/अंकुश में न रखे हुए वश नहीं किये हुए क्रोध, मान एवं प्रवर्द्धमान माया एवं लोभ ये चारों संपूर्ण या क्लिष्ट कषाय पुनर्जन्म रूपी वृक्ष के तथाविध कर्मरूपी जड़ को अशुभ भावरूपी जल से सिंचन करते हैं।।४०।।
विविध नियमों से साध्वाचार पालन :... रायणिएसु विणयं पउंजे,
धुवसीलयं सययं न हावईज्जा। कुम्मुव्व अल्लीण-पलीण-गुत्तो,
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 133