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पूर्व के अशुभ कर्म के उदय से अनाचार सेवन कर ले तो अति शीघ्र गुरु के पास आलोचना लेवे उसको छूपावे नहीं और मैंने नहीं किया ऐसा अपलाप भी न करें।। ३२ ।। अमोहं वयणं कुज्जा, आयरिअस्स महप्पणी ।
तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायर ||३३||
सं.छा.ः अमोघं वचनं कुर्याद्, आचार्याणां महात्मनाम्। तत्परिगृह्य वाचा, कर्मणोपपादयेत् ||३३||
भावार्थ : मुनि को महात्मा, आचार्य भगवंत के वचन आज्ञा को सत्य करना चाहिए। आचार्य भगवंत के वचन को मन से स्वीकारकर क्रिया द्वारा उस को पूर्ण करना चाहिए
||३३||
अधुवं जीविअं नच्चा, सिद्धिमग्गं विआणीआ । विणिअद्विज्ज भोगेसु, आउं परिमिअमप्पणो ||३४|| सं.छा.ः अध्रुवं जीवितं ज्ञात्वा, सिद्धिमार्गं विज्ञाय । विनिवर्तेत भोगेभ्यः, आयुः परिमितमात्मनः ।।३४।।
भावार्थ : मुनि इस जीवन को अनित्य जानकर, स्वयं के आयुष्य को परिमित समझकर, ज्ञान-दर्शन चारित्र रूपी मोक्ष मार्ग को निरंतर सुखरूप मानकर विचारकर बंधन के हेतुभूत विषयों से पीछे रहे ||३४||
बलं थामं च पेहार, सद्धा-मारुग्ग-मप्पणी । 'खित्तं कालं च विनाय, तहप्पाणं निजुंजए ||३५|| जरा जाव न पीडेड़, वाही जाव न वड्ढई। जाविंदिआ न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ ३६ ॥
सं.छा.ः बलं स्थाम च प्रेक्ष्य, श्रद्धामारोग्यमात्मनः।
क्षेत्रं कालं च विज्ञाय, तथात्मानं नियुञ्जीत ।।३५।। जरा यावन्न पीडयति, व्याधिर्यावन्न वर्धते । यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावद्धर्मं समाचरेत् ॥३६ ।।
भावार्थ : मुनि स्वयं की शक्ति, मानसिक बल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा और निरोगीता देखकर क्षेत्र काल जानकर उस अनुसार अपनी आत्मा को धर्म कार्य में प्रवर्तावे || ३५ ।। जब तक वृद्धावस्था पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इंद्रियाँ क्षीण न हो वहां तक शक्ति को बिना छूपाये धर्माचरण करें ||३६||
कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाव - वड्ढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हिअमप्पणी ||३७||..
सं.छा.ः क्रोधं मानं च मायां च, लोभं च पापवर्धनम्।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 132