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होनेवाले कष्टों को सम्यक् प्रकार से सहन करना, महान फल दायक है ।।२७।।
अत्थंगयंमि आईच्चे, पुरन्था अ अणुग्गए।
आहार-माईयं सव्वं, मणसा वि न पत्थर ||२८|| सं.छा.ः अस्तंगत आदित्ये, पुरस्ताच्चानुद्गते।
___ आहारादिकं सर्वं, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ।।२८।। . भावार्थ : सूर्यास्त के बाद से सूर्योदय के पूर्व तक चारों प्रकार के आहार में से कुछ भी खाने की इच्छा मन से भी न करें ।।२८।। . अतिंतिणे अचवले, अप्पभासी मिआसणे। .
हविज्ज उअरे दंते, थोवं लद्धं न खिंसप्ट ||२९|| सं.छा.: अतिन्तिणोऽचपलः, अल्पभाषी मिताशनः।
भवेदुदरे दान्तः, स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेत् ।।२९।। भावार्थ ः मुनि दिन में आहार न मिले, निरस मिले तब प्रलाप न करे। स्थिर, अल्पभाषी मिताहारी, और उदर का दमन करनेवाला हो। अल्प मिलने पर नगर या गांव की निन्दा करनेवाला न हो ।।२९।। -
न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे।
सुअलाभे न मज्जिज्जा, जच्चा तवस्सि-बुद्धिष्ट ||३०|| सं.छा.: न बाह्यं परिभवेद्, आत्मानं न समुत्कर्षयेत्। : श्रुतलाभाभ्यां न मायेत, जात्या तपसान बुद्ध्या ।।३०।। भावार्थः जिस प्रकार मुनि किसी का तिरस्कार न करें, उसी प्रकार स्वयं का उत्कर्ष भी न करें। श्रुत लाभ (कुल-बल-रूप) जाति-तप एवं विद्या का मद भी न करें ॥३०॥
से जाणमजाणं वा, कटु आहम्मि पयं।
संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समायरे ||३१|| सं.छा.ः स जाननजानन् वा, कृत्वाऽधार्मिकं पदम्।
- संवरेत् क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं तन्न समाचरेत् ।।३१।। भावार्थ : मुनि राग-द्वेष के कारण जान अनजान में मूल-उत्तर गुण की विराधना कर ले तो उस परिणाम से शीघ्र दूर होकर आलोचनादि ग्रहणकर दूसरी बार ऐसा न करें।।३१।।
अणायारं परकम्म, नेव गृहे न निन्हवे।
सुइ सया वियडभावे, असंसत्ते जिइंदिर ||३२|| सं.छा.ः अनाचारं पराक्रम्य, नैव गूहयेन निहनुवीत। - शुचिः सदा विकटभावः, असंसक्तो जितेन्द्रियः ।।३२।। भावार्थ : निरंतर पवित्र बुद्धिवाले, प्रकटभाववाले, अप्रतिबद्ध, और जितेन्द्रिय मुनि
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 131