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यतं तिष्ठेन्मितं भाषेत, न च रूपेषु मनः कुर्यात् ।।१९।। भावार्थ : आहार पानी के लिए गृहस्थ के घर गया हुआ गीतार्थ मुनि वहां जयणापूर्वक खड़ा रहे, जयणापूर्वक मित/कम बोले, दातार स्त्री आदि की ओर मन केन्द्रित न करें। रूप न निरखें। इस प्रकार साध्वाचार का पालन करें ।।१९।। रसनेन्द्रिय से जीव जयणा :
बहुं सुणेहि कल्लेहिं, बहुं अच्छीहिं पिच्छई।
न य दिलु सुअं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ।।२०।। सं.छा.ः बहु शृणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिभ्यां पश्यति।
न च दृष्टं श्रुतं सर्वं, भिक्षुराख्यातुमर्हति ।।२०।। भावार्थ ः रत्नत्रयी आराधनार्थे स्थान से बाहर गये हुए अथवा उसी स्थान पर मुनि ने कानों से बहुत सुना, आँखों से बहुत देखा वह सब, स्व पर अहितकारी सुना हुआ या देखा हुआ दूसरों को नहीं कहना चाहिए ।।२०।।
सुअं वा, जई वा दिहूँ, न लविज्जोवघाइ
न य केण उवाएणं, गिहिजोगं समायरे ।।२१।। सं.छा.ः श्रुतं वा यदि वा दृष्टं, नालपेदौपघातिकम्।
न च केनचिदुपायेन, गृहियोगं समाचरेत् ।।२१।। भावार्थ : मुनि श्रवण किया हुआ या देखा हुआ जो परोपघातकारी हो उसे न कहें एवं . किसी भी उपाय से गृहस्थोचित कार्य का आचरण न करें ।।२१।। . निट्ठाणं रसनिज्जूळ, भद्दगं पावगंति वा।
पुठ्ठो वा वि अपुट्ठो वा, लाभालाभं न निदिसे ।।२२।। सं.छा.: निष्ठानं रसनियूढं, भद्रकं पापकमिति वा। ... पृष्टो वाऽपि अपृष्टो वा, लाभालाभं न निर्दिशेत् ।।२२।। भावार्थ : मुनि किसी के पूछने पर या बिना पूछे यह रसयुक्त आहार सुंदर है, रस रहित आहार खराब है ऐसा न कहें एवं सरस निरस आहार की प्राप्ति में या न मिले तो यह नगर अच्छा या बूरा न कहें। दाता अच्छे हैं या बूरे हैं ऐसा न कहें ।।२२।।
न य भोअणंमि गिद्धो, चरे उंछं अयंपिरो।
अफासुअं न भुंजिज्जा, कीय-मुद्देसि-आहडं ||२३|| _सं.छा.: न च भोजने गृद्धः, चरेदुञ्छमजल्पनशीलः। - अप्रासुकं न भुञ्जीत, क्रीतमौद्देशिकाहतम् ।।२३।।
भावार्थ : आहार लुब्ध बनकर धनवानों के या विशिष्ट घरों में ही न जाय। परंतु मौनपूर्वक धर्मलाभ मात्र का उच्चारण करते हुए सभी घरों में जाय, अनेक घरों से
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 129